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________________ 199 प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5 मूलार्थ - विषयों में आसक्त प्रमादी व्यक्ति फिर से घर में निवास करने लगता है। हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में विषयों में आसक्त रहने वाले साधु की क्या स्थिति होती है, इस बात का स्पष्ट निरूपण किया गया है । जो साधक त्रियोग का गोपन नहीं करके, विषयों में प्रवृत्त रहता है, वह संयम से पराङ्मुख होकर घर-गृहस्थ में फिर से जा फंसता है । दूसरी बात यह है कि द्रव्य वेश का परित्याग न करने पर भी उसे भाव साधुत्व के अभाव में गृहस्थ कहा है। क्योंकि उसकी भावना संयम से, साधुता विमुख हो चुकी है, इसलिए सूत्रकार ने उसके लिए 'आगारमावसे, शब्द का प्रयोग किया है। जब हम आध्यात्मिक दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र पर विचार करते हैं, तो गृहवास का अर्थ होता है- क्रोध, मान, माया, लोभ एवं राग-द्वेष रूप अध्यात्म दोषों में निवास करना और प्रमत्त व्यक्ति या शब्दादि विषयों में आसक्त व्यक्ति की प्रवृत्ति सदा राग-द्वेष एवं कषायों में होती है । अतः वह द्रव्य से घर नहीं रखते हुए भी सदा घर में ही निवास करता है। उसका कषाय- युक्त घर सदा उसके साथ रहता है । इसलिए साधक को विषयों में आसक्त नहीं रहना चाहिए । विषयों में आसक्त नहीं रहने का स्पष्ट अर्थ है कि वनस्पतिकायिक जीवों के आरम्भ - समारम्भ में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए । जो विषयों में आसक्त रहता है, वह वनस्पति के आरंभ में भी संलग्न रहता है और इस कारण उसे साधु न कहकर गृहस्थ कहा है । परन्तु जैनेतर संप्रदायों में इसके विपरीत कहा गया है, उनकी मान्यता क्या है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मो त्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्म-समारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण पूयणाए जाइ-मरण - मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सइसत्थं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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