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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम्-पुणो-पुणो गुणासाए वंक समायारे॥4॥
छाया-पुनः पुनः गुणास्वादः वक्रसमाचारः। ___ पदार्थ-पुणो-पुणो-बार-बार । गुणासाए-शब्दादि गुणों का आस्वादन करने से वह। वंक समायारे-असंयम का सेवन करने वाला हो जाता है। ___ मूलार्थ-बार-बार शब्दादि गुणों का आस्वादन करने से व्यक्ति असंयम में प्रवृत्त हो जाता है। हिन्दी-विवेचन
यह हम ऊपर देख चुके हैं कि जो शब्दादि विषयों में आसक्त रहता है, वह संयम से दूर ही रहता है, क्योंकि उसके त्रियोग की प्रवृत्ति विषयों में होने से वह रात-दिन रूप-रस का आस्वादन करने में ही संलग्न रहता है। उसका मन सदा विषयों के चिन्तन-मनन में लगा रहता है और वचन की प्रवृत्ति भी विषय-सुख की ओर लगी रहती है और शरीर से भी विषयों का आनन्द लेने में अनुरक्त होने के कारण उसका आचार सम्यक् नहीं रहता। इसी कारण सूत्रकार ने. विषयों में आसक्त व्यक्ति को "वंक समायारे" वक्र अर्थात् कुटिल आचारयुक्त कहा है। 'वंक समायारे' शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने कहा है
__ “वक्र-असंयमः कुटिलो नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्, समाचरणं समाचारःअनुष्ठानं, वक्रः समाचारो यस्यासौ वक्रसमाचारः असंयमानुष्ठायीत्यर्थः”
अर्थात्-नरकादि गति के हेतुभूत असमय का ही दूसरा नाम वक्रसमाचार है। ___ इससे स्पष्ट हुआ कि शब्दादि विषयों में आसक्त व्यक्ति असंयम में प्रवृत्त होता है। असंयम में प्रवृत्त होने से उसका परिणाम क्या होता है, इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-पमत्तेऽगारमावसे॥450 छाया-प्रमत्तोऽगारमावसति।
पदार्थ-पमत्ते-प्रमादी-विषयों में आसक्त व्यक्ति। आगारमावसे-घर में जा बसता है।