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________________ 197 प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5 अभिव्यक्त किया है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि कर्म-बन्ध का कारण विषयों का अवलोकन एवं ग्रहण मात्र नहीं, प्रत्युत उसमें रही हुई आसक्ति है। इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्-एस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए॥43॥ छाया-एष लोकः व्याख्यातः अत्र अगुप्तः अनाज्ञायाम्। पदार्थ-एस-यह पांच विषय रूप। लोए-लोक। वियाहिए-कहा गया है। एत्थ-इसमें जो। अगुत्ते-अगुप्त है अथवा शब्दादि विषयों में आसक्त हो रहा है, वह। अणाणाए-आज्ञा में नहीं है। मूलार्थ-शब्दादि पांच विषयरूप लोक कहा गया है। जो जीव मन-वचन और काय को विषयों से गोप कर नहीं रखता है, अर्थात् जो व्यक्ति शब्दादि विषयों में अनुरक्त रहता है, वह जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा में नहीं है। हिन्दी-विवेचन . ___ प्रस्तुत सूत्र में शब्दादि पांच विषयों को लोक कहा है। जो व्यक्ति मन-वचन और शरीर से विषयों में आसक्त है, उसे अगुप्त कहा है। मन से विषयों का चिन्तन करना, वाणी से उन्हें प्राप्त करने की प्रार्थना करना और शरीर से उन्हें पाने का प्रयत्न करना, यह त्रियोग की अगुप्तता है। जिस व्यक्ति के तीनों योग विषयों में ही लगे रहते हैं, उसे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा में नहीं कहा है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वीतराग भगवान की आज्ञा विषयों में आसक्त होने की नहीं है, अथवा त्रियोग को विषयों से गुप्त-गोपन करके रखने की है। कारण यह है कि विषयों में आसक्त व्यक्ति रात-दिन संसार में ही उलझा रहता है और इस कारण वह संयम की सम्यक् साधना-आराधना नहीं कर सकता। जिनेश्वर भगवान की आज्ञा संयम-साधना की है, न कि संसार बढ़ाने की। इस अपेक्षा से शब्दों में आसक्तं व्यक्ति के लिए कहा गया है कि वह जिनेश्वर भगवान की आज्ञा . में नहीं है। इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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