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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी - विवेचन
शब्द आदि विषय किसी एक दिशा में उत्पन्न नहीं होते; ऊर्ध्व-अधो और पूर्व-पश्चिम आदि सभी दिशा - विदिशा में उत्पन्न होते हैं और जीव ऊपर-नीचे, दाएं, बाएं चारों ओर रूप-सौन्र्दय का अवलोकन करता है, शब्दों को सुनता है, गन्ध को सूंघता है, रसों का आस्वादन करता है तथा विभिन्न पदार्थों का स्पर्श करता है और इन्हें देख-सुन कर या सूंघ - चख कर या स्पर्श कर अनेक जीव उन विषयों में आसक्त हो जाते हैं, मूर्च्छित होने लगते हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में दो बातें बताई गई हैं। एक तो विषयों का अवलोकन करना उन्हें ग्रहण करना और दूसरे में उन अवलोकित विषयों में आसक्त होना, राग-द्वेष करना । इन दोनों क्रियाओं में बड़ा अंतर है। जहां तक अवलोकन का या ग्रहण करने का प्रश्न है, वहां तक ये विषय आत्मा के लिए दुःख रूप नहीं बनते, कर्म-बन्ध का कारण नहीं बनते । यदि मात्र देखने एवं ग्रहण करने से ही कर्म-बन्ध माना जाएगा तब तो फिर कोई भी जीव कर्म-बन्ध से अछूता नहीं रह सकता। संसार में स्थित सर्वज्ञों की बात छोड़िए, सिद्ध भगवान भी विषयों का अवलोकन करते हैं, क्योंकि उनका निरावरण ज्ञान लोकालोक के सभी पदार्थों को देखता - जानता है और सिद्ध भी विषयों को ग्रहण करते (जानते हैं । अतः यदि विषयों को ग्रहण करने मात्र से कर्म का बन्ध होता हो, तो फिर वहां भी कर्म-बन्ध मानना पड़ेगा और वहां कर्म का बन्ध होता नहीं । सिद्ध अवस्था में तो क्या तेरहवें गुणास्थान में भी कर्म - बन्ध नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि विषयों को देखने एवं ग्रहण करने मात्र से कर्म का बन्ध नहीं होता और न देखने मात्र से संसार - परिभ्रमण का प्रवाह ही बढ़ता है ।
कर्म-बन्ध का कारण उन विषयों को ग्रहण करना मात्र नहीं, अपितु उनमें आसक्त होना है, अर्थात् उनमें राग-द्वेष करना है । हम पहले देख चुके हैं कि कर्म-बन्ध का मूल राग-द्वेष एवं आसक्ति है । इसी वैभाविक परिणति के कारण आत्मा कर्मों के साथ आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करती है और विभिन्न विषयों में आसक्त होकर शुभाशुभ कर्मों का उपार्जन करके स्वर्ग-नरक आदि गतियों का चक्कर काटती है । इसी बात को सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र में “मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति” वाक्य के द्वारा