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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5
करने वाले विविध व्यंजन एवं पकवान वनस्पति से ही बनते हैं । और स्पर्श इन्द्रिय को सुख पहुंचाने वाले तथा शीत- ताप से बचाने एवं सुशोभित करने वाले विभिन्न रंग एवं आकार के सूत के बने वस्त्र वनस्पति की ही देन हैं। इस प्रकार जब हम गहराई से सोचते-विचारते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि शब्दादि विषयों का वनस्पति के साथ सीधा संबन्ध है । अतः वनस्पति के प्रकरण में उसका वर्णन उचित एवं प्रासंगिक ही है।
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अब प्रश्न यह उठता है कि संसार - परिभ्रमण के कारणभूत ये शब्दादि विषय किसी एक नियत दिशा में उत्पन्न होते हैं या सभी दिशाओं में उत्पन्न होते हैं ? उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - उड्ढं, अहं' तिरियं पाईणं पासमाणे रुवाई पासति, सुणमाणे सद्दाई सुणेति, उड्ढं अहं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि॥42॥
छाया - उर्ध्वमधस्तिर्यक् प्राचीनं पश्यन् रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शब्दान् शृणोति, ऊर्ध्वमधः प्राचीनं मूर्च्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चापि ।
पदार्थ - उड्ढं-ऊंची दिशा । अहं - नीची दिशा । तिरियं - तिर्यक् दिशा चारों दिशा-विदिशाएं इनमें तथा । पाईणं - पूर्वादि दिशाओं में । पासमाणे - देखता हुआ । रूवाइं-रूपों को। पासति - देखता है, और । सुणमाणे - सुनता हुआ । सद्दाई - शब्दों को सुति - सुनता है, तथा । उड्ढ - ऊंची दिशा । अहं - नीची दिशा में । पाईणं. पूर्वादि दिशाओं में। मुच्छमाणे - मूर्च्छित होता हुआ । रूवेसु-रूपों में। मुच्छति - मूर्छित होता है। च-और। सद्देसु - शब्दों में मूर्छित होता हैं। आवि - संभावना या समुच्चयार्थ में है, इससे गन्ध, रस, स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण किया जाता है ।
मूलार्थ - ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक् एवं पूर्वादि दिशाओं में रूप को देखता हुआ देखता है तथा शब्दों को सुनता हुआ श्रवण करता है, तथा इन ऊर्ध्व आदि दिशाओं में मूर्च्छित होकर रूप एवं शब्दों में आसक्त एंव मूर्च्छित होता है और इसी तरह गंध, रस एवं स्पर्श में भी मूर्च्छित होता है ।
1. 'अवं' इति पाठान्तरम् ।