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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
बचेगा और वह है गुरु का एवं शासन का । इससे भी उऋण हो सकता है, जितनाजितना संयम का पालन करेगा, गुरु एवं शासक के ऋण से मुक्त होता जाएगा। पूर्ण संयम सध जाने पर सारे ऋणों से उऋण हो जाता है। गुरुजनों से उऋण होने के लिए उन्हें संयम में सहयोग करे या संयम में स्थिर करें ।
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मूलम् - तं परिण्णाय मेहावी इयाणि णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं॥1/4/36
मूलार्थ - अग्निकाय के आरंभ से होने वाले अनर्थ को जानकर बुद्धिमान पुरुष इस बात का निश्चय करे कि प्रमाद के कारण मैं पहले अग्निकाय के आरंभ को करता रहा हूँ, इस समय उसका परित्याग करता हूँ ।
जिस आरंभ को प्रमादवश मैंने किया था, उसको अब नहीं करूँगा । प्रमाद की शुरूआत असंयम से होती है । योगों की चंचलता और कषाय -वश मैंने जो हिंसा की थी, कराई थी और अनुमोदना की थी, वह मन-वचन-काया से आगे न करूंगा, न कराऊंगा और न अनुमोदना करूंगा (मुनिजनों की अपेक्षा) यह मूलतः व्रत लेने के पूर्व की भावना है। व्रत लेने से पूर्व व्यक्ति ऐसा सोचता है। या तो यों कहो इस भावना से युक्त होने पर ही व्रतों का आगमन होता है। जब उसे इस असंयम के परिणाम का पता लगता है, अहसास होता है, तब व्यक्ति प्रतिक्रमित होता है, प्रायश्चित्त करता है, निंदामि गरिहामी करता है । तब उसके अन्तःकरण में यह भावना आती है। यह आलोचना की भावना है । अतः यहाँ पर इस बात का संकेत भी है, प्रथम आलोचना की भावना और आलोचना, फिर व्रत ग्रहण एवं संयम-पालन ।
आलोचना तभी प्रभावकारी होती है, जब वह इस प्रकार ज्ञानपूर्वक आए, पश्चात्ताप - पूर्वक आए। इसके आगे का फल फिर संयम । अतः संयम-पालन में उत्सुक और सावधान व्यक्ति की ही वास्तविक आलोचना है । जो आलोचना केवल डरपूर्वक . की जाती है, वह आलोचना नहीं है । अन्ततः संयम का अर्थ है, योगों को उपशान्त करना, स्थिर करना । ध्यान भी मनःसंयम का एक रूप है।
केल