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अध्यात्मसार : 4
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मूलम्-जे पमत्ते गुणट्ठिए से हु दंडेत्ति पवुच्चई॥1/4/35
मलार्थ-जो जीव प्रमादी और गुणार्थि हैं, वे जीव प्राणियों के लिए दण्ड का कारण होने से उन्हें दण्ड रूप कहा जाता है। - यह सूत्र पूर्व सूत्र से जुड़ा हुआ है। जो प्रमादी है और गुणार्थि है, वह निश्चय ही दण्ड रूप कहा जाता है। व्यक्ति प्रमादी कब होता है? पहले तो वह असंयमी होगा, असंयम से विवेक सो जाता है, तब प्रमाद आता है। जैसे संयम और विवेक का परिणाम है, अप्रमत्तता, वैसे ही असंयम और अयतना 'मिथ्याज्ञान' का परिणाम है, प्रमाद। उस प्रमाद के वशवर्ती गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ता चला जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं के लिए भी दण्ड रूप है एवं दूसरों के लिए भी। वह स्वयं की आत्मा को भी दुःखी करता है और दूसरे जीवों को भी इनसे दुःख मिलता है। असंयम से विवेक सो जाएगा। विवेक के सोने से प्रमाद आता है। प्रमाद से व्यक्ति गुणार्थि बनता है। गुणार्थीपन-गुणों के प्रति आकर्षण से दुःख का आगमन, दुःख का उपार्जन, स्व एवं पर दोनों के लिए।
दुःख का आगमन वर्तमान सम्बन्धी, दुःख का उपार्जन भाविष्य संबंधी। पर के लिए प्रमुख रूप से केवल दुःख का आगमन। दुःख का उपार्जन हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। .
परोपकार-दूसरों पर उपकार कब होगा? इस दुनिया में संयम सर्वश्रेष्ठ उपकार है। क्योंकि संयम से विवेक, विवेक से अप्रमत्तता, अप्रमत्तता से सुख का आगमन एवं उपार्जन स्व एवं पर दोनों के लिए। सुख का आगमन पर के लिए प्रमुख रूप से, उपार्जन हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। इसीलिए जो संयम धारण करता है, वह सभी के उपकारों को चुका देता है। संयम धारण करने से वह सभी ऋणों से उऋण हो जाता है। वह स्वयं के लिए और दूसरों के लिए कल्याणरूप और मंगलरूप है।
जितना-जितना वह संयम में बढ़ेगा, उतना-उतना ऋण कम होता जाएगा। संयम लेने से संसार के सारे सम्बन्धों से वह मुक्त हो जाता है। फिर एक ही ऋण