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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध इस प्रकार तीनों ही एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन प्रारंभ होता है संयम से। यही साधना की धारा है। संयम से विवेक, फिर अप्रमत्तता।
संयम चारित्र का नाम है, अर्थात् चयन किए हुए कर्मों को रिक्त करने के लिए की जाने वाली क्रिया। विवेक-ज्ञान का बोधक है-आत्मज्ञान।
अप्रमत्तता-मोहनीय कर्म के क्षय होने का बोधक है। मिथ्यात्व मोहनीय और चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से पहले संयम आता है। संयम से विवेक आता है। विवेक-पूर्वक संयम का पालन करते रहने पर मोहनीय कर्म का विशेष रूप से क्षयोपशम होने से अप्रमत्तता आती है।
__जैसे कोई कहता है कि संयम का क्या करना है, केवल जागरूक होना पर्याप्त है। लेकिन जागरूकता बिना संयम के आएगी कैसे? योग जब सम होगें। सम-यम-योग चंचलता को छोड़कर जब हम सम होंगे, तभी जागरूकता आएगी।
जागरूकता-अप्रमत्तता। अतः पहले संयम को साधे, उससे विवेक जागेगा। कई लोग विवेक का अर्थ केवल बुद्धि करते हैं, लेकिन वह तो विवेक का साधन रूप अंश मात्र है, विवेक नहीं।
विवेक-विवेक अर्थात् योग-स्थिरता के द्वारा प्राप्त किया गया सम्यक् ज्ञान। जब तक पूर्णतः विवेक का जागरण नहीं होता है (पूर्णतः अर्थात् स्वज्ञान आश्रित विवेक-यतना), तब तक जैसा आगमों में सम्यक् ज्ञान आचरण का वर्णन है, उस प्रकार चलना। यह है आगम-आश्रित विवेक-यतना। जब तक पूर्णतः स्व-ज्ञान का जागरण न हो जाए, तब तक भटकने की संभावना रहती है। उस समय आगम ज्ञान सम्बल देता है। इस प्रकार आगम ज्ञान भी उतना ही उपयोगी है, जितना स्व-ज्ञान। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के परिपूरक हैं। इस प्रकार जो जितने अंशों में संयम और विवेक के द्वारा अप्रमत्तता को उपलब्ध हुआ है, वह उतना ही वीर है। सम-यम-योग स्थिरता को उपलब्ध होना ही वीरता है। कहा भी है, जिसने मन को जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया, बाकी तो क्या वीर क्या कायर। वह तो केवल शक्ति का टकराव है अहम् का टकराव है, हिंसा का मार्ग है।