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अध्यात्मसार: 4
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क्योंकि ‘उवओगो जीव लक्खणं' लेकिन उनमें विवेक नहीं है । जब यह कहा जाय कि उपयोगपूर्वक कार्य करना, अर्थात् मन को साथ लगाते हुए कार्य करना, चैतन्य की धारा उसीमें प्रवाहित करना । आत्मा के ज्ञान दर्शन रूपी परिणामों को उसी कार्य में समाहित करना ।
संयम का यहाँ पर हम जो अर्थ करते हैं, वह है बाह्याचार । जो व्रत - नियम इत्यादि बताए गए हैं, वह ऐसे देखा जाए तो प्रत्येक शब्द में सब कुछ समा गया है। फिर भी हमने प्रत्येक शब्द को एक विशेष अर्थ प्रदान किया है ।
संयम - अपने सम्पूर्ण योगों को सम रखना, विचलित डोलायमान, कषाय एवं उत्तेजना युक्त नहीं होने देना । व्यवहार में कहने के लिए कहा जाता है कि इसने संयम ग्रहण किया और वह संयम से गिरा । वस्तुतः संयम का अभिप्राय योग- समत्व में निष्ठा, योग-समत्व का ज्ञान और तदनुसार आचरण करने से है । संकल्प संयम में सम्यक् उत्थान है और उस संकल्प को छोड़ना संयम से गिर जाना है । इस प्रकार वस्तुतः जब हम योग को सम रखते हैं, तभी हम संयम में हैं।
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संयम से ही विवेक जागता है । जब तुम योगों को सम रखोगे, तब सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का विकास होगा । यहाँ पर दर्शन का अर्थ दर्शनावरणीय का दर्शन, जैसे सिद्धों में दो उपयोग हैं- ज्ञान और दर्शन । योगों को सम रखने से उन्हीं का विकास होता है और उनके विकास से संयम की परिपुष्टि होती है । इस प्रकार संयम और विवेक दोनों के मेल से अप्रमत्तता आती हैं । जिस दिन संयम सध जाता है, उस दिन विवेक पूर्णतः जागृत हो जाता है और परिणामस्वरूप व्यक्ति सम्पूर्णतः अप्रमत्त हो जाता है । यह तेरहवें गुणस्थान की अवस्था है। सातवें गुणस्थान को भी अप्रमत्त गुणस्थान कहा गया है, लेकिन वह स्थायी नहीं है । स्थायी रूप से अप्रमत्तता और पूर्णतः अप्रमत्तता तेरहवें गुणस्थान में आती है । इस प्रकार . संयम और विवेक का परिणाम ही अप्रमत्तता है ।
संयम से विवेक जागृति, विवेक जागने से अप्रमत्तता और वह अप्रमत्तता पुनः संयम को पुष्ट करती है । अतः संयम, विवेक और अप्रमत्तता तीनों को एक दूसरे का परिपूरक कह सकते हैं ।