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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
यह सूत्र वीर के संबंध में परिचय देता है । वीर कौन है? जो संयत, यतनाशील एवं अप्रमत्त है।
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संयत अर्थात् - सावद्य योग से निवृत्ति ।
संयत-यत्नशील विवेक की जागृति ।
विवेक - अर्थात् जड़ एवं चेतन का बोध, जीव एवं अजीव का बोध, सत्य-असत्य का बोध, नित्य - अनित्य का बोध |
विवेक शब्द का मूल अर्थ होता है - सम्यक् ज्ञान । ऐसा ज्ञान, ऐसी प्रज्ञा - जिससे आप सत्य-असत्य में फर्क कर सकें। जैसे हंस अपनी चोंच से दूध और पानी को अलग कर देता है, वैसे ही विवेकवान साधक यह समझ लेता है किं सार क्या है और असार क्या है । इसी परम उत्कृष्ट विवेक को प्रज्ञा भी कहते हैं ।
जो संयम और विवेक दोनों के साथ गति करेगा, उसे अप्रमत्तता की उपलब्धि होती है। संयम और यतना के मेल से अप्रमत्तता रूप परिणाम आता है ।
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अप्रमत्तता क्रिया नहीं है, अपितु हमारे अन्तःकरण की अवस्था है। अतः जो व्यक्ति संयत है एवं यतनाशील है, वह स्वयमेव अप्रमत्तता को उपलब्ध हो जाएगा।
यतना दो प्रकार से है - 1. आगम ज्ञान आश्रित, 2. स्वज्ञान आश्रित ।
स्व-ज्ञान- अर्थात् जो हमारा ज्ञान गुण है, उसका जितना विकास होगा, उतना विवेक जागता है । सम्यक् ज्ञान को विवेक कहते हैं, मिथ्याज्ञान को नहीं ।
विवेक का मूल - सम्यक् दर्शन, क्योंकि श्रद्धा अगर सम्यक् हुई तो ज्ञान भी सम्यक् होगा ।
उपयोग का अर्थ-विवेक नहीं होता, यतनापूर्वक यानी विवेकपूर्वक । उपयोग दो प्रकार से है–ज्ञान एवं दर्शन उपयोग । अतः जहाँ यह कहा है कि यतनापूर्वक करें, वहाँ अर्थ होगा - विवेकपूर्वक कार्य करो ।
उपयोग-रहित तो कोई भी जीव नहीं है । निगोद के जीवन में भी उपयोग है,