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________________ अध्यात्मसार: 4 काय-क्लेश तप का स्वरूप जब तक मन की समता रहे, तब तक काय-क्लेश तप करें। मन यदि अत्यधिक तनाव एवं व्याकुलता से भर जाए तब काय-क्लेश तप संवर एवं निर्जरा की जननी, चित्त की उपशांतता की अपेक्षा क्रोध एवं चिड़चिड़ेपन को लाता है। हठयोग की भाँति हठी नहीं हो जाना, शरीर को जबरदस्ती नहीं सताना। ध्यान में आसनस्थिरता हेतु संकल्प एवं हठ का आलम्बन लेना पड़े, वह ठीक है। उससे फायदा ही होगा, क्योंकि वहाँ पर बाह्य तप काय-क्लेश के साथ ध्यान भी जुड़ा हुआ है, लेकिन यह भी विवेकपूर्वक करना। खाली बाह्य तप यदि (अनशन इत्यादि) जबरदस्ती या हठ-पूर्वक करेंगे तो नुकसान भी हो सकता है। इसलिए पुनः-पुनः कहते हैं कि बाह्याचार एवं तप के साथ आभ्यंतर साधना नितान्त आवश्यक है। बाह्य एवं आभ्यंतर तप दोनों ही एक दूसरे के परिपूरक हैं, लेकिन मूल है आभ्यंतर तप। ध्यान ही धर्म का सार है। दीर्घ-ध्यान व तप _ यदि कोई बाह्य तप के साथ ध्यान की विशिष्ट साधना करना चाहे, तब दिन में एक ही बार भोजन करें, हो सके तो एकलठाणा या एकाशन भोजन में 10 या 15 द्रव्य लगाएं। भोजन दूसरे पहर में या तीसरे के शुरूआत में करें, ताकि सूर्यास्त से पहले भोजन हजम हो जाए। इससे पेट भी हल्का रहता है एवं जागरूकता रहती है। फलितार्थ ध्यान भी सधता है। - मूलम्-वीरेहिं एवं अभिभूय दिलृ संजएहिं सया तत्तेहिं सया अप्पमतेहि॥1/4/34॥ मूलार्थ-महाव्रतों के परिपालक सदा यत्नशील और अप्रमत्त रहने वाले वीर पुरुषों ने परीषह तथा कर्मों को अभिभूत करके प्राप्त केवलज्ञान के द्वारा अग्निकाय रूप शस्त्र और संयमरूप अशस्त्र को देखा है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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