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प्रथम अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
पंचम उद्देशक
चतुर्थ उद्देशक में अग्निकायिक जीवों का वर्णन किया गया है और उसके आरम्भ-समारम्भ का परित्याग करने की प्रेरणा दी गई है। इसी क्रम से प्रस्तुत उद्देशक में वायुकाय का वर्णन करना चाहिए था। परन्तु यहां पर सूत्रकार ने वायुकाय के स्थान में वनस्पतिकाय का विवेचन किया है। इस क्रम-उल्लंघन का कारण यह है कि पांच स्थावरों में वायुकाय चाक्षुष-चक्षुग्राह्य न होने से शिष्य की समझ में जल्दी नहीं
आ सकता। इसलिए पहले चारों स्थावरों एवं त्रस का वर्णन करके, फिर वायुकाय का वर्णन करेंगे। इससे यह लाभ होगा कि चार स्थावर एवं त्रस जीवों का स्वरूप स्पष्ट हो जाने के पश्चात् वायु के स्वरूप को समझने में कठिनाई नहीं होगी। इस तरह शिष्य के हित को सामने रख कर प्रस्तुत उद्देशक में वायुकाय के स्थान में वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन किया गया है। उसका प्रथम सूत्र निम्नोक्त है
मूलम्-तं णो करिस्सामि समुट्ठाए, मत्ता मइमं, अभयं, विदित्ता, तं जे णो करए, एसोवरए, एत्थोवरए, एस अणगारेत्ति पवुच्चई॥10॥ ___ छाया-तत् नो करिष्यामि समुत्थाय मत्वा मतिमन् ! अभयं विदित्वा, तं यो नो कुर्यात्, एष उपरतः, अत्रोपरतः एष अनगार इति प्रोच्यते। - पदार्थ-तं-उस वनस्पतिकाय का आरम्भ। णो करिस्सामि-नहीं करूंगा। समुट्ठाए-सम्यक् प्रव्रजित होकर। मत्ता-जीवादि पदार्थों को जानकर। मइमं-हे मतिमान् शिष्य! अभयं-संयम को। विदित्ता-जानकर। तं-उस वनस्पतिकाय के आरंभ-हिंसा को। जे-जो। णो करए-नहीं करता है। एसोवरए-वही उपरत-निवृत्त है। एत्थोवरए-जिन मार्ग में ही ऐसा त्यागी मिलता है, अन्यत्र नहीं। एस-यही त्यागी। अणगारेत्ति-अनगार। पवुच्चई-कहा जाता है।
मूलार्थ-हे शिष्य! जो व्यक्ति सर्वज्ञोपदिष्ट मुनिधर्म को स्वीकार करके तथा