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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अस्तु, प्रस्तुत सूत्र में बताया गया कि मुमुक्षु अग्निकाय के आरम्भ समारम्भ को जानने के पश्चात् उनमें प्रवृत्त नहीं होता। जब तक वह उसके स्वरूप को भली-भांति नहीं जानता, तब तक प्रमाद के कारण अग्नि का आरम्भ करता है । परन्तु उसका सम्यक्तया ज्ञान होने के बाद वह उसका सर्वथा परित्याग कर देता है, अर्थात् पूर्व समय जो आरम्भ किया है, उसका पश्चात्ताप करता है और भविष्य के लिए उसका त्याग कर के विवेकपूर्वक संयम में प्रवृत्त होता है।
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अग्निकाय के संबंध में जैनेतर संप्रदाय का जो अभिमत है, उसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति । तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण- माणण-पूयणाए, जाइ-मरण - मोयणाए, दुक्खब्र-पडिघायहेउं से सयमेव अगणिसत्यं समारंभइ अण्णेहिं वा अगणिसत्यं समारंभावेइ, अण्णे वा अगणिसत्यं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहियाए, से तं संबुज्झमाणे अयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभमाणे अणे अगरूवे पाणे विहिंसइ ॥37॥
छाया—लज्जमानान् पृथक् पश्य ! अनगाराः स्मः इत्येके प्रवदमानाः यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः अग्निकर्म-समारंभेण अग्निशस्त्रं समारभमाणाः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसन्ति । तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता अस्य चैव जीवितस्य परिवंदन-मानन - पूजनाय, जाति-मरण - विमोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुं सः स्वयमेव अग्निशस्त्रं समारभते अन्यैर्वा अग्निशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति, तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोधये, सः तत् संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतः