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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 4
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हिन्दी-विवेचन
· प्रस्तुत सूत्र में प्रबुद्ध पुरुष के यथार्थ जीवन का चित्रण किया गया है। इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि जब तक जीवन में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित नहीं होती, तब तक क्रिया में आचरण में तेजस्विता नहीं आ पाती। इसलिए अग्निकाय के आरम्भ से कितना अनर्थ एवं अहित होता है, इस बात का परिज्ञान होने के बाद मुमुक्षु उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान के बाद ही प्रत्याख्यान की अभिरुचि होती है, आचरण की ओर कदम उठता है और ज्ञानपूर्वक किया गया त्यांग ही वास्तविक आत्मविकास में सहायक होता है।
- भगवती सूत्र में बताया गया है कि गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा-हे भगवन् ! कोई जीव यह कहता है कि मैंने प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा का त्याग कर दिया है, उसका प्रत्याख्यान-सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान है? भगवान महावीर ने कहा-हे गौतम! उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान भी है और दुष्प्रत्याख्यान भी, भगवान के हकार-नकार युक्त उत्तर को स्पष्ट समझने की अभिलाषा से गौतम स्वामी ने पुनः पूछा-भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं? भगवान ने कहा-हे गौतम! जो जीव, जीव-अजीव आदि तत्त्वों को भली-भांति नहीं जानता है, त्रस-स्थावर के स्वरूप को नहीं पहचानता है, वह व्यक्ति यदि कहता है कि मैंने प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों की हिंसा का त्याग कर दिया है, तो वह सत्य नहीं, अपितु झूठ बोलता है, तीन करण-तीन योग से असंयती है, अव्रती है। पाप कर्म का त्यागी नहीं है। क्रिया-युक्त है, असंत है, एकान्त दण्ड रूप है; एकान्त बाल-अज्ञानी है, इसलिए उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। और जो जीवाजीव एवं त्रस-स्थावर आदि तत्त्वों का ज्ञाता है और वह कहता है कि मैंने प्राण, भूत आदि की हिंसा का त्याग कर दिया है, तो वह सत्य बोलता है, तीन करण-तीन योग से संयती है, व्रती है; पाप कर्म का त्यागी है, क्रिया-रहित है, संवृत है, एकान्त पंडित-ज्ञानी है, इसलिए उस का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। अस्तु, इससे स्पष्ट हो गया कि ज्ञान-पूर्वक किया गया त्याग ही कर्म-बन्धन को तोड़ने में सहायक होता है, निर्जरा का कारण बनता है।
1. भगवती सूत्र, शतक 7, उद्देशक 2।