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काल में जो तीर्थंकर (विहरमान) महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान हैं, वे भी अपने शासनकाल में सर्वप्रथम आचारांग का उपदेश देते हैं और भविष्य में होने वाले तीर्थंकर भी सर्वप्रथम इसका प्रवचन देंगे। गणधर भी इसी क्रम से अंग सूत्रों को ग्रंथित करते हैं। ___आचारांग सूत्र को सर्वप्रथम स्थान देने के रहस्य का उद्घाटन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि यह मुक्ति का अव्याबाध सुख प्राप्त करने का मूल आचार है । प्रश्नोत्तर के रूप में आचार के महत्त्व को बताते हुए नियुक्तिकार प्रश्न उठाते हैं कि अंग सूत्रों का सार क्या है, आचार। आचार का सार क्या है, अनुयोग-अर्थ। अनुयोग का सार क्या है, प्ररूपणा करना। प्ररूपणा का सार क्या है, सम्यक् चारित्र को स्वीकार करना। चारित्र का सार क्या है, निर्वाण पद की प्राप्ति। निर्वाण पद पाने का सार क्या है, अक्षय सुख को प्राप्त करना। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मुक्ति एवं अव्याबाध सुख का मूल आचार है; क्योंकि कर्म के आने का कारण भी क्रिया है और निर्जरा का कारण भी क्रिया है। सम्यग्ज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया निर्जरा का कारण है। अतः ज्ञान एवं क्रिया की समन्वित साधना से मुक्ति मानने वाले जैनागमों में सम्यग्दृष्टि को क्रियावादी भी कहा गया है। इसका कारण यही है कि क्रिया के बिना आत्मा अक्रिय अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता। अस्तु, मुक्ति के लिए सबसे पहली आवश्यकता चारित्र है। चारित्र शब्द का अर्थ है-कर्मजल को खाली करना या कर्मसमूह का नाश करना । इसी कारण सभी तीर्थंकर भगवान तीर्थ की स्थापना करते समय सर्वप्रथम आचारांग का उपदेश देते हैं।
-आचारांग नियुक्ति, 9/9
1. सव्वेसिं आयारो तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए।
सेसाइं अंगाई एक्कारस आणुपुवीए॥ आयारो अंगाणं पढमं, अंग दुवालसण्हंपि।
इत्थ य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स ॥ 2. अंगाणं किं सारो? आयारो, तस्स हघइ किं सारो?
अणुओगत्थो सारो, तस्सवि य परूवणा सारो॥ सारो परूवणाए चरणं, तस्सवि य होइ निव्वाणं। निव्वाणस्स उ सारो अव्वावाहं जिणाविंति॥ 3. एयं चयरित्तकरं, चारित्त होइ आहियं।
-आचारांग नियुक्ति, 16/17
-उत्तराध्ययन, 28/33