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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अहिंसा की दृष्टि से देखें तो यह बात उचित है। लेकिन यहाँ पर केवल अहिंसा ही नहीं, अपितु अध्यात्म-साधना में साधन रूप शरीर को स्वस्थ रखने का भी सवाल है ।
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कच्ची साग-सब्जी ऐसे ही तथा सब्जियों के रस के रूप में भी चिकित्सा हेतु औषध के रूप में ठीक है, लेकिन आहार के रूप में कच्ची सब्जी शरीर के लिए उपयोगी नहीं है। कच्चे साग का रस विकृति पैदा करता है । इसलिए उसे अग्निकाय के द्वारा विधि सहित पकाना जरूरी है । विधि सहित, अर्थात् मिट्टी के बर्तन में पकाना अथवा उत्तम धातु का उपयोग करना उत्तम है। विशेष रूप से शरीर के लिए हानिकारक मिर्ची हिंग इत्यादि मसालों का उपयोग नहीं करना ।
कच्ची सब्जी शरीर को गुणकारी नहीं होती, क्योंकि फिर जठराग्नि को उसे पकाना पड़ता है। दवाई के रूप में लेना हो तो रस के रूप में ले सकते हैं। अधिक घी, तेल, मिर्च, मसाले खाने से शरीर में उत्तेजना उत्पन्न होती है और मैदा-शक्कर से आंते बिगड़ती हैं।
वर्तमान में मनुष्य के जीवन में इन चीजों की अधिकता के कारण अनेकानेक रोग प्रवेश हो गये हैं । अतः कच्चा आहार लेने पर उत्तेजना शान्त हो जाती है। आंतों को व्यायाम मिलता है । इस प्रकार उनके स्वास्थ्य में भी सुधार होता है । अनेक साधु मुनिराज, जो अधिक दवाई खाते हैं, उनके लिए उन अशुद्ध एवं प्रचुर हिंसा से युक्त दवाइयों को खाने की अपेक्षा अल्प हिंसा युक्त, परन्तु शुद्ध कच्चा आहार औषध के रूप में लेना ठीक है । यह शरीर का विज्ञान है । यह अध्यात्म नहीं है । यह अध्यात्म साधना नहीं है। अतः जहाँ तक हो सके, इनसे बचना, जब जरूरी हो तब लेना ।
ऐसे तो साग-सब्जी का रस आहार के रूप में गुणकारी नहीं है, लेकिन सही विधि से पकाया जाए, तब उपयोगी है । यदि कच्चा खाना हो तो फल कच्चे गुणकारी हैं। पहले ऋषि-मुनि जो कच्चा आहार खाते थे, उनमें विशेष रूप से फल एवं दूध होता था । ऐसे तो फल भी सचित्त आहार है, लेकिन इस पंचमकाल के संघयन की अपेक्षा औषध के रूप में फल ले सकते हैं । स्वास्थ्य की अपेक्षा 75 प्रतिशत फर्क तो शिविर में जो भोजन नहीं करने को कहा जाता है उसी से पड़ जाता है
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शरीर व चित्त की उपशान्ति के लिए - केवल फलाहार करना उपयोगी हैं, किन्तु साथ में दूध नहीं लेना चाहिए, क्योंकि आजकल जो दूध आता है वह भी