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________________ 155 अध्यात्मसार : 3 आत्मा को दोनों ही एक दूसरे के उपकारी हैं । पुनः इस बात का ध्यान रखना कि शरीर केवल उपकरण मात्र है, आत्मसिद्धि के लिए । आत्मसिद्धि प्राप्त होते ही देहभाव छूट जाता है। यहाँ पर इस सूत्र में हमने लोक का अर्थ शरीर किया है। लेकिन प्रत्येक सूत्र में लोक का अर्थ शरीर नहीं होता । ऐसे तो प्रत्येक शब्द अनंत अर्थ को लिए हुए है, लेकिन हमैं तो वही अर्थ ग्रहण करना है जो जिनशासन सम्मत है, जो जिनेश्वर भगवान ने बताया । जैसे- धर्म शब्द के अनेक अर्थ हैं - राजधर्म, समाज धर्म, देशधर्म, स्त्रीधर्म आदि लेकिन भगवान ने धर्म का अर्थ बताया, है - अहिंसा, संजमो, तवो । 1 मूलम् - अदुआ अदिन्नादाणं |1/3/27 मूलार्थ - सचित्त जल का उपयोग करने वाले साधु को प्राणातिपात दोष के साथ अदत्तादान - चोरी का भी दोष लगता है । अग्निकाय में यदि हिंसा तो. फिर जैसे कई लोग कहते हैं कि फिर आप पानी को क्यों गरम करते हैं, सब्जी इत्यादि पकाकर क्यों खाते हैं? कच्चा ही क्यों नहीं खा सकते हैं? पांनी अचित्त क्यों - पानी को अचित्त इसीलिए बनाना जरूरी है कि एक बार जब पानी को गरम करेंगे तो हिंसा अवश्य होगी, लेकिन अचित्त पानी में जिस प्रकार अप्काय के जीवों का पुनः पुनः जन्म-मरण होता है उस महा हिंसा से बचा जा सकता है। 2. मुनिजन अपने लिए न ही गरम पानी बनाते हैं न ही बनवाते हैं । वे तो गृहस्थ के द्वारा बनाए हुए पानी में से कुछ हिस्सा अपने लिए ले लेते हैं । इस प्रकार मुनिजन, तो अग्निकाय का आरम्भ करते ही नहीं । श्रावक क्यों ? श्रावक भी पुनः पुनः होने वाली जन्म-मरण रूप हिंसा से बचने के लिए पानी को अचित करने हेतु गरम करता है । आहार - आहार भी मुनिजन अपने लिए नहीं बनाते, गृहस्थ ने जो अपने लिए बनाया हुआ आहार है, उसमें से बना हुआ, अचित्त आहार गोचरी के रूप में लेते हैं । गृहस्थ खुद ही कच्ची सब्जी को काटता है और खुद ही उसे अग्नि में पकाता है, फिर अग्नि में पकाकर हिंसा करने के बजाय वह कच्चा ही क्यों नहीं खाता ?
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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