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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
है । ऐसे तो शरीर की रक्षा इस विश्व में प्रत्येक जीव करता है, परन्तु उद्देश्य भिन्न-भिन्न है । जो संयम साधना के लिए शरीर की रक्षा करता है, वही संवर - निर्जरा का कारण है। बाकी बन्धन है। शरीर रक्षा करते हुए यह खयाल रखना कि कहीं आत्मा पर मैल न लग जाए। अतः जहाँ तक हो सके, निर्वद्य चिकित्सा करनी है ।
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शरीर को ठीक करने के लिए शवासन भी उपयोगी है । शवासन, अर्थात् शरीर को भूल जाना। शरीर विस्मृति - देहभान के जाने पर, शरीर अपने आप शांत हो जाता है। शरीर की जितनी चिन्ता करोगे, उतना ही रोग बढ़ेगा । शरीर की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। शरीर के प्रति जागरूक रहना । समता और जागरूकता बनाए
रखना ।
कभी आवश्यक लगे तो कठोर कपड़े से शरीर को रगड़ने पर, रक्त संचार तेज होता है; त्वचारन्ध्र, रोम खुलते हैं । आसन -स्थिरता में सहयोग मिलता है । नींद, आलस्य, तन्द्रा महसूस होती हो तो वह दूर होती है । गीले कपड़े से अच्छी तरह रगड़ कर पौंछना।
इससे आगे जो अपनी आत्मा का निषेध करता है, वह शरीर का भी निषेध करता है, अर्थात् जो अपनी आत्म शान्ति, कषाय की उपशान्तता स्वभाव का निषेध करेगा, उसका शरीर भी शांत एवं स्वस्थ नहीं हो पाएगा। इसलिए लोग शरीर शांति के लिए भी अध्यात्म की ओर बढ़ते हैं। शरीर स्वास्थ्य भी आत्म साधना से प्रभावित होता है। जैसे हम कहते हैं कि अमुक जप करने से शरीर का यह रोग ठीक हो जाएगा, क्योंकि जप करने से आत्मा के परिणाम ही नहीं बदलते, अपितु शरीर के पुद्गल भी बदलते हैं और रोग शान्त हो जाता है । आत्मशांति, शरीरशांति को लाती है और शरीरशांति आत्मशांति हेतु सहयोग देती है । अतः हमें दोनों तरह से प्रयत्न करना चाहिए।
शरीर के साथ उपलक्षण से वस्त्र, स्थान आसपास का वातावरण भी आ जाता है । इसीलिए शरीर के साथ-साथ वस्त्र, स्थान एवं वातावरण का शुद्धिकरण भी आवश्यक है। इन सभी की पवित्रता और पावनता से आत्मपरिणामों पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है।
ज्ञानी जनों को, प्रज्ञावान को न तो शरीर का निषेध करना चाहिए और न ही