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अध्यात्मसार: 3
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लोक का अर्थ
लोक का एक अर्थ अपना शरीर भी कर सकते हैं। यहाँ पर निषेध का अर्थ उसके अस्तित्व का निषेध नहीं है। यहाँ पर अर्थ है कि जो व्यक्ति शरीर को नहीं साध सकता है, वह अपनी आत्मा को भी नहीं साध सकता। शरीर का हमारी आध्यात्मिक साधना के साथ संबंध है। इसीलिए मोक्षगामी जीव का शरीर वज्रऋषभनाराच संघयन का होता है। शरीर तो यहीं रहने वाला है, फिर भी कहा गया कि मनुष्य देह मिलना महत्त्वपूर्ण है और इसमें भी वज्रऋषभ नाराच संघयन, क्योंकि मोक्ष इसी से जाया जा सकता है।
शरीर को साधने का अर्थ-शरीर शुद्धि, शंख प्रक्षालन, कुंजल इत्यादि शरीर शुद्धि की क्रियाएं, आसन, प्राणायाम इत्यादि। _ 1. आहार-शुद्धि-आहार से ही शरीर का निर्माण होता है। अतः सात्त्विक
आहार का प्रयोग। ___2. आसन-सिद्धि-जब किसी भी एक आसन में आप न्यूनतम साढ़े तीन घण्टे सुखपूर्वक बिना किसी हलचल के बैठ सकें, तब समझना चाहिए आसन सिद्ध हो गया।
आसन-सिद्धि से लाभ-1. शरीर एवं चित्त की उपशान्ति उपयोगी है, 2. साथ + ही आहार शुद्धि से शरीर को निरोगी रखना भी आवश्यक है। अन्ततः सबसे प्रमुख है ध्यान-जितना मन ध्यान में लग जाएगा आसन अपने आप सध जाएगा। आसन के सधने से ध्यान में सिद्धि आती है और ध्यान के सधने से आसन सिद्धि मिलती है, दोनों ही एक दूसरे के परिपूरक हैं। शरीर की स्थिरता से मनःस्थिति और मनःस्थिरता से शरीर की स्थिरता सधती है।
. जो शरीर का निषेध करेगा, वह मन का भी निषेध करेगा। यह व्यवहार मार्ग है, राजमार्ग है। कहीं अपवाद में बिना शरीर को साधे भी आत्म-सिद्धि उपलब्ध होती है। जैसे भक्ति मार्ग में आसन स्थिरता की चर्चा नहीं आती, परन्तु वहाँ पर भी जब भावों की उत्कर्षता आती है, तब शरीर अपने आप स्थिर हो जाता है।
अतः शरीर का भी निषेध नहीं करना। शरीर नश्वर है, किन्तु साधना के लिए बहुत उपयोगी है। अतः साधन मानकर संयम व साधना के लिए शरीर रक्षा आवश्यक