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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध आत्मा का निषेध करता है। जो अपनी आत्मा का निषेध करता है, वह लोक का निषेध करता है, क्योंकि लोक का ज्ञान कहाँ से आया? आत्मा से।
अतः जो इस लोक का निषेध करेगा या इस लोक के ज्ञान का निषेध करेगा, वह अपनी आत्मा के ज्ञान गुण का निषेध करेगा। गुण एवं गुणी की अभिन्नता के आधार पर ज्ञान का निषेध करते हुए अपनी आत्मा का निषेध स्वतः हो जाएगा।
दूसरे दृष्टिकोण से लोक का जो ज्ञान है, वह ज्ञान और वह स्वरूप किसने बताया है? केवली भगवान ने। अतः जो इस ज्ञान का निषेध करता है वह आंशिक रूप से केवली भगवान का निषेध करता है। इस प्रकार वह अपने स्वभाव का भी निषेध करता है। चूंकि केवल-ज्ञान उसका स्वभाव है, इसलिए जो इस ज्ञान का. निषेध करता है वह अपने स्वरूप तक नहीं पहुंच सकता; क्योंकि लोक के ज्ञान का यदि निषेध करेंगे तो इस लोक के ज्ञान के आधार पर अरिहंत भगवान ने जो आचार बताया है, उसका पालन कैसे होगा? उस बाह्याचार का भी निषेध हो जाएगा और बिना आचार के स्वरूपबोध किस प्रकार हो सकता है? मुख्यतः जीव रूप में लोक का वर्णन है, क्योंकि यतना मूलतः जीव की करनी है। अजीव की भी यतना करनी है, लेकिन मूल में जीव है। ___जो अपने स्वरूप का निषेध करता है, वह लोक का भी निषेध करता है; क्योंकि जो कहता है देह से आगे कुछ भी नहीं, मैं तो पंच-तत्व का बना हूँ, उसे लोक का ज्ञान कैसे होगा? नहीं होगा।
ज्ञान-'जैसे लोगस्स उज्जोयगरे'-जो उद्योत करने वाला है, उसका निषेध करने पर लोक में होने वाले उद्योत (प्रकाश) का निषेध स्वयमेव हो जाता है। अतः जो अपनी आत्मा का निषेध करता है, वह उसी आत्मा से आए हुए लोक के ज्ञान का भी निषेध कर देता है।
इस प्रकार यहाँ पर लोक के ज्ञान एवं आत्मा के बीच में अभिन्नता बतायी गयी है और साथ ही यहाँ पर अप्काय का विषय चल रहा है। अप्काय के जीव तथा स्वयं के जीव के स्वरूप में एक्य दर्शाया है। (सोऽह) मैं वही हूँ अतः उनके अस्तित्व का निषेध करने पर अपना निषेध हो जाता है और अपना निषेध करने पर उनके अस्तित्व का निषेध स्वयमेव हो जाता हैं।