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________________ 151 अध्यात्मसार: 3 कहीं दोष होगा । आत्मज्ञानी व्यक्ति भी एक देशीय आज्ञा दे सकता है, सर्वदेशीय नहीं, वह भी भगवान की आज्ञा को द्रव्य, क्षेत्र, काल अनुसार स्पष्ट करके बताएगा, सर्वदेशीय आज्ञा तो भगवान ही दे सकते हैं । 1 इस प्रकार लोक एवं भगवान की आज्ञा को जानकर साधक चलता रहे, तब यह परिणाम आता है, ‘अकुओभयं' अर्थात् जो न स्वयं किसी से भयभीत होता है और न किसी जीव को ही उससे भय लगता है । इसे अभयदान भी कह सकते हैं, अर्थात् • जो स्वयं अभय में जीता है और जिसकी उपस्थिति किसी भी प्राणी के लिए भय का कारण नहीं बनती है । अभयदान परिणाम है । लोक के स्वरूप और तीर्थंकर देव की आज्ञा को जानकर जो उसके अनुसार चलता है, वह अन्ततः इस प्रकार स्वरूपबोध को उपलब्ध होता है । इस स्वरूपबोध के आधार पर वह सभी में स्व का ही रूप देखता है । अतः उसे किसी से भी भय नहीं लगता और स्वरूपबोध से जो मैत्री भाव जागता है । उस परिपूर्ण मैत्री भाव से किसी भी जीव को उससे भय नहीं लगता है । आगे जीव लोक का स्वरूप छह काय का स्वरूप बताया जाएगा। यह लोक का ( जीव लोक का) स्वरूप ज्ञान है और उसके आगे जो साधु का आचार बताया जाएगा, वह भगवान की आज्ञा है। इन दोनों को जानकर उपयोगपूर्वक आचरण करना लोक का स्वरूप ज्ञेय है। भगवान की आज्ञा उपादेय है, आचरणीय है । मूलम् - से बेमि-णेव सयं लोगं अब्भाइक्खिज्जा व अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अब्भइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइक्खइ ॥1/3/23 मूलार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! मैं तुम्हें कहता हूँ कि मुमुक्षु को स्वयं अप्काय रूप लोक का कभी भी अपलापन - निषेध नहीं करना चाहिए और अपनी आत्मा के अस्तित्व से भी इनकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो व्यक्ति अप्काय का अपलाप करता है, वह आत्मा का भी अपलाप करता है और जो व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है, वह अप्काय के संबंध में उसी भाषा का प्रयोग करता है । यह सूत्र अनेक दृष्टिकोण से है । जो लोक का निषेध करता है, वह अपनी
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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