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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध ___ कर्म-वस्तुतः पुद्गल कर्म ही पुद्गल को, कर्म को, आकर्षित करता है जिसमें जीव के परिणाम निमित्त बनते हैं।
मिथ्यात्व-जो चीज जैसी है, वैसी नहीं दिखाई देती; यह विपरीतता पूर्णतः भी हो सकती है और आंशिक भी। आत्म अज्ञान निश्चय मिथ्यात्व। ___ समयक्त्व-आत्म-ज्ञान, वस्तु के वास्तविक स्वरूप का पता लगना, जीव और अजीव के सत्य स्वरूप का बोध होना। क्रियावादी-कर्मों के आगमन की दशा को जो जान लेता है, वह क्रियावादी है।
उत्पत्तिशील का अर्थ है-उत्पत्ति एवं विनाश-युक्त होना। पर्याय से उत्पत्तिशील और द्रव्य से नहीं। पर्याय से जीव उत्पत्तिशील है। शरीर की अपेक्षा, कर्मों की अपेक्षा, परिणामों की अपेक्षा लेकिन द्रव्य से उत्पत्तिशील नहीं है।
लज्जमाणा-जो अपने प्राणों की मर्यादा में रहता है और दूसरे प्राणी के प्राणों की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता। इस प्रकार मर्यादा युक्त जीव को लज्जमाणा कहकर सम्बोधित किया है।
मूलम्-लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुओ भयं॥1/3/22
मूलार्थ-तीर्थंकर भगवान के वचनों से अप्काय के स्वरूप को जानकर संयम का परिपालन करें।
लोक के स्वरूप को जानकर जीव और अजीव के स्वरूप को जानकर, साधना से 'सोऽहं' का स्वरूप जानकर।
आणाए-भगवान की आज्ञा को जानकर, भगवान की आज्ञा अर्थात आचारांग सूत्र में जो कहा गया है।
लोक का स्वरूप व्यवहार-दृष्टि से संक्षेप में जानना हो तो, तत्त्वार्थ-सूत्र सम्पूर्ण अथवा श्री उत्तराध्ययन सूत्र का अन्तिम अध्ययन। __लोक और आज्ञा-भगवान ही आज्ञा क्यों फरमाते हैं, क्योंकि आज्ञा वही दे सकता है, जो समर्थ है जिसके पास परिपूर्ण ज्ञान है, जो राग-द्वेष से रहित है। जो राग-द्वेष से रहित नहीं, पूर्ण ज्ञानी नहीं, वह आज्ञा भी देगा तो उसकी आज्ञा में कहीं