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अध्यात्मसार:
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अनेक प्रकार की अशुद्धियों से युक्त होता है। साथ ही दूध एक रस-प्रणीत आहार है। जैसे कल्पसूत्र के अन्तर्गत बताया गया है कि चातुर्मास के अन्तर्गत पुष्ट शरीर से युक्त साधु को यदि रस-प्रणीत आहार करना हो तो गुरु की आज्ञा लेकर करना चाहिए। ब्रह्मचर्य की 9 वाडों में रस-प्रणीत आहार न करना यह भी एक वाड है। शक्कर मिठाई अधिक खाने से विकार आता है। __ किसी का मन अधिक संतप्त हो, विकार-युक्त हो, ऐसे तो उनके लिए तप करने का विधान है। लेकिन यदि व्यक्ति तप नहीं कर सकता, तब केवल फलाहार करना चाहिए। शिविरों में भी यदि कोई व्यक्ति ऐसे हों जो अधिक संतप्त हैं, रोगयुक्त हैं, तब उनके लिए फलाहार अति उपयोगी है। लेकिन यह सब कुछ ‘रोग की अपेक्षा' तत्संबंधी पूर्ण जानकारी पढ़कर करना। किस रोग में कौन-सा फल चलता है, कौन-सा नहीं, यह जानकारी होना आवश्यक है। लेकिन साधारण-रूप से शरीर व मन शान्त होता है। यह फलाहार केवल चिकित्सा के रूप में है। अध्यात्मिक दृष्टि से तो सूखा धान्य ही उपयोगी है।
भक्ति-जितने लोग भक्ति-मार्ग में आसानी से जाते हैं, उतनी आसानी से वे ध्यान नहीं कर पाते, क्योंकि वहाँ तुरन्त समर्पण आता है। अन्ततः ध्यान ही उपयोगी है। भक्ति भी ध्यान की ओर ले जाती है, लेकिन बाल-जीवों के लिए पहले भक्ति उपयोगी है। अतः इस भक्ति मार्ग का विकास करना आवश्यक है।
त्याग-त्याग हो या न हो, दोष तो गृहस्थ को भी लगता है। तो व्रत लेने के बाद आत्मोन्नति न हो सकेगी, क्योंकि अव्रती की अपेक्षा व्रती को दोष अधिक लगता है, लेकिन ऐसा नहीं है। एक अपेक्षा से साधु को दोष अधिक लग सकता है, यदि वह जान बूझकर संकल्पपूर्वक अप्काय की हिंसा करता है, तब प्राणों की अहिंसा प्राणों की चोरी के साथ-साथ शासन की चोरी का भी दोष लगता है। जो व्यक्ति जितने अंशों में आरंभ-समारंभ करेगा, उतना आस्रव होगा एवं जितने अंशों में आरंभसमारंभ नहीं करेगा, उतना संवर होगा।
योग का अस्थैर्य और कषाय के कारण कर्मों का बन्धन होता है। योग की चंचलता-योग की चंचलला से प्रकृति एवं प्रदेश बंध।