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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध है वह उसके आरम्भ से दूर रहता है। न तो वह स्वयं अप्काय की हिंसा करता है, न दूसरे व्यक्ति को हिंसा के लिए प्रेरित करता है और न किसी हिंसा करने वाले व्यक्ति का ही समर्थन करता है । वह त्रिकरण - त्रियोग से अप्काय के आरम्भ - समारम्भ का त्यागी होता है । वह अपने मन-वचन-काय के योगों को अप्काय के आरम्भ - समारम्भ से निरोध कर संवर एवं निर्जरा को प्राप्त करता है, अर्थात् कर्मआगमन के द्वार को. रोकता है, जिससे नए कर्म नहीं आते और पुरातन कर्मों को एक देश से क्षय करता है । ऐसे साधक को परिज्ञातकर्मा कहा है । 146 अपरिज्ञात और परिज्ञात-कर्मा व्यक्तियों की क्रिया में बहुत अन्तर रहा हुआ है। एक की क्रिया अविवेक एवं अज्ञान - पूर्वक होने से कर्मबन्ध का कारण बनती है, तो दूसरे की क्रिया विवेक- युक्त होने से निर्जरा का कारण बनती है। इसलिए मुनि को चाहिए कि वह अप्काय के स्वरूप का बोध प्राप्त करके उसकी हिंसा का सर्वथा त्याग करे। अप्कायिक जीवों के आरम्भ का त्याग करने वाला ही वास्तव में मुनि कहलाता है' । 'त्ति बेम' का अर्थ प्रथम उद्देशक की तरह समझना चाहिए । ॥शस्त्रपरिज्ञा तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ 1. इस सूत्र का वर्णन द्वितीय उद्देशक के अन्तिम सूत्र की तरह समझना चाहिए ।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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