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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
. समारंभ । परिण्णाया - परिज्ञात । भवंति - होते हैं । तं परिण्णय - इस आरंभ - जन्य कर्म-बन्धन को जानकर । मेहावी - बुद्धिमान पुरुष । नेव-न तो । सयं - स्वयं । उदयसत्थं–उदक-शस्त्र का । समारंभेज्जा - समारंभ करे । णेवण्णेहिं - और न अन्य से। उदय-सत्थं-समारंभावेज्जा - अप्काय के शस्त्र का समारंभ करावे । उदय-सत्थंअप्काय के शस्त्र का । समारंभंतेवि - समारम्भ करते हुए । अण्णे- दूसरों का । णसमणुजाणेज्जा- अनुमोदन - सर्मथन भी न करे । जस्सेते - जिस व्यक्ति को ये सब । उदय-सत्य-समारंभा - अप्काय के शस्त्र - समारम्भ । परिण्णाया भवंति - परिज्ञात होते हैं। से हु मुणी - वही मुनि वास्तव में । परिण्णायकम्मे - परिज्ञात कर्मा होता है । त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ ।
मूलार्थ - अप्कायिक जीवों का शस्त्र से आरंभ समारंभ करने वाले व्यक्ति को यह परिज्ञात नहीं होता कि यह आरंभ-समारंभ कर्मबन्ध का कारण हैं जो अप्काय का आरंभ समारंभ नहीं करते, उनको यह सब आरंभ एवं उस का परिणाम परिज्ञात होता है। अतः बुद्धिमान पुरुष अप्काय के आरंभ - समारम्भ को कर्मबन्ध का कारण जानकर न तो स्वयं उसका शस्त्र से आरम्भ करे न दूसरे व्यक्ति से आरंभ करावे और न किसी आरंभ करने वाले व्यक्ति का समर्थन ही करे। जो अप्कायिक जीवों के आरम्भ को भली-भांति जानता एवं त्याग देता है, वही मुनि वास्तव में परिज्ञातकर्मा है।
हिन्दी - विवेचन
जो व्यक्ति अप्काय के आरम्भ समारम्भ में आसक्त रहता है, वह उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता है और न उसके कटु फल से ही परिचित है । यदि उसको इसका परिज्ञान होता तो वह आरम्भ - समारम्भ से बचने का प्रयत्न करता । इसलिए जिस व्यक्ति को अप्काय के आरम्भ समारम्भ एवं उसके परिणाम स्वरूप मिलने वाले कटु फल का परिज्ञान है, वह उसमें प्रवृत्ति नहीं करता है । इसी बात को सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताया है । और अप्काय के आरम्भ - समारम्भ में आसक्त व्यक्ति को अपरिज्ञातकर्मा कहा है और उसके त्यागी को परिज्ञातकर्मा कहा है
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वास्तव में यह सत्य है कि जिसे अप्काय - सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं है, वह उसके आरम्भ से बच नहीं सकता । उसकी प्रवृत्ति हिंसाजन्य ही होती है । और जिसे ज्ञान