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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
द्रव्य स्नान में प्रवृत्त न होकर, भाव स्नान में संलग्न रहना चाहिए। वैदिक परम्परा के ग्रंथों में भी ब्रह्मचारी के लिए स्नान आदि शारीरिक शृंगार का निषेध किया गया है । रही प्रतिदिन आवश्यक शुद्धि की बात । उसे साधु अचित्त पानी से विवेक पूर्वक कर सकता है। स्नान नहीं करने का यह अर्थ नहीं है कि वह अशुचि से भी लिपटा रहे । उसका तात्पर्य इतना ही है कि वह अपना सारा समय केवल शरीर को शृंगारने में ही न लगाए। परन्तु यदि कहीं शरीर एवं वस्त्र पर अशुचि लगी है तो उसे अचित्त जल से विवेक पूर्वक साफ कर ले।
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इस तरह अप्काय में विवेक रखने वाला ही अप्काय के आरम्भ समारम्भ से बच सकता है, पानी के जीवों की रक्षा कर सकता है। इसलिए वही वास्तव में अनगार है, मुनि है, त्यागी साधु है। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारं भमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं उदय - सत्यं समारंभेज्जा, जेबण्णेहिं उदय-सत्थं समारंभावेज्जा, उदय-सत्थं समारंभंतेऽवि अण्णे ण समुणजाणेज्जा, जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिण्णांया भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मे, त्ति बेमि ॥31॥
छाया - अत्र शस्त्रं समारंभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति, अस्य शस्त्रं असमारंभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमुदकशस्त्रं समारंभेत्, नैव अन्यैः उदक- शस्त्रं समारम्भयेत्, उदकशस्त्रं समारंभमाणान् अन्यान् न समुनजानीयात्, यस्य एते उदकशस्त्र समारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति सः खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । इति ब्रवीमि ।
पदार्थ - एत्थ - इस अप्काय में । सत्यं - द्रव्य और भाव रूप शस्त्र का । समारम्भमाणस्स - आरंभ करने वाले को । इच्चे - ये सब । आरम्भा - आरंभ - समारम्भ । अपरिण्णाया- अपरिज्ञात-कर्म रूप बन्धन के ज्ञान और परित्याग से रहित । भवंति - होते हैं । एत्थ - इस अप्काय में । सत्थं - द्रव्य और भाव शस्त्र का । असमारम्भमाणस्स - समारम्भ न करने वाले को । इच्चेते - ये सब । आरम्भा - आरंभ