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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
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मूलार्थ-अप्काय की सजीवता के सम्बन्ध में भी उनके द्वारा मान्य सिद्धान्त या शास्त्र किसी प्रकार का निर्णय करने में समर्थ नहीं हैं। हिन्दी-विवेचन __ तत्त्व का निर्णय करने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह के ज्ञान प्रमाण माने गए हैं। अनुमान आदि प्रमाणों के साथ आगम प्रमाण भी मान्य किया गया है। परंतु आगम वही मान्य है, जो आप्त-पुरुष द्वारा कहा गया हो। क्योंकि उसमें विपरीतता नहीं रहती। इस कसौटी पर कसकर जब हम आजीविक आदि परम्पराओं के आगमों को परखते हैं, तो वे सर्वज्ञ-कथित प्रतीत नहीं होते।
यथार्थ वक्ता को आप्त कहते हैं। क्योंकि उसमें रागद्वेष नहीं होता, अपने-पराये का भेद नहीं होता, कषायों का सर्वथा अभाव होता है और उसके ज्ञान में पूर्णता होती है। और उसका प्रवचन प्राणिजगत के हित के लिए होता है। परन्तु जो आप्त नहीं होते हैं, उनके विचारों में एकरूपता, स्पष्टता, सत्यता एवं सर्व जीवों के प्रति क्षेमकरी भावना नहीं होती।
इस दृष्टि से जब हम जैनेतर आगमों का अवलोकन करते हैं, तो वे प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध जीवों की सजीवता के विषय में सही निर्णय नहीं कर पाते। इससे परिलक्षित होता है कि उनमें सर्वज्ञता का अभाव है। क्योंकि प्रथम तो एन्हें अप्कायिक जीवों के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है। और दूसरे उनमें राग-द्वेष का सद्भाव है। इसी कारण वे अप्काय के जीवों का आरम्भ-समारम्भ करने का उपदेश देते हैं। इंस तरह उनके द्वारा प्ररूपित आगम आप्त-वचन नहीं होने से प्रामाणिक नहीं हैं और इसी कारण किसी निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ हैं।
- विभूषा-स्नान आदि के लिए सचित्त जल का उपयोग करना किसी भी तरह उचित नहीं है। स्नान भी एक तरह का शृंगार है और साधु के लिए शृंगार करने का निषेध किया गया हैं। क्योंकि द्रव्य स्नान से केवल चमड़ी साफ होती है, आत्मा की शुद्धि नहीं होती। आत्मा की शुद्धि के लिए अहिंसा, दया, सत्य, संयम और सन्तोष रूपी भाव स्नान आवश्यक हैं। इसलिए साधु को सचित्त या अचित्त किसी भी जल के
1. सव्व-जग-जीव-रक्खण-दयट्ठाए भगवथा पावयणं कहियं
-प्रश्नव्याकरण सूत्र