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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम्-पुढो सत्थेहिं विउट्टन्ति॥29॥ छाया-पृथक् शस्त्रैः व्यायन्ति।
पदार्थ-पुढो-पृथक् । सत्थेहि-शस्त्रों से। विउटुंति-अप्काय के जीवों का नाश करते हैं।
मूलार्थ-वे नाना प्रकार के शस्त्रों से अप्काय के जीवों का विनाश करते हैं। हिन्दी-विवेचन
यह हम पहले देख चुके हैं कि ज्ञान और आचार का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा हुआ है। ज्ञान के अभाव में आचार में तेजस्विता नहीं आ पाती। वह अंधे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता है। यही बात सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताई है कि जिन व्यक्तियों को पानी की सजीवता का परिज्ञान नहीं है, वे अनेक तरह के शस्त्रों से अप्काय-पानी के जीवों का नाश करते हैं।
शस्त्र दो प्रकार के माने गए हैं-1. स्वकाय और 2. परकाय। मधुर पानी के लिए क्षार जल तथा शीतल के लिए उष्ण पानी स्वकाय-शस्त्र है और राख-भस्म, मिट्टी, आग आदि परकाय-शस्त्र कहलाते हैं। इन दो प्रकार के शस्त्रों से लोग अप्कायिक जीवों की हिंसा करके कर्मों का बन्ध करते हैं। आश्चर्य तो उन प्राणियों पर होता है, जो अपने आपको साधु कहते हैं और समस्त प्राणियों की रक्षा करने का दावा करते हुए भी उक्त उभय शस्त्रों से अप्काय का विध्वंस करते हैं और उसके साथ अन्य स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा करते हैं। अतः उनका मार्ग निर्दोष नहीं कहा जा सकता। ___ उनके मार्ग की सदोषता बताकर, अब सूत्रकार उनके आगमों की अप्रामाणिकता का उल्लेख करते हैं
मूलम्-एत्थवि तेसिं नो निकरणाए॥30॥ छाया-अत्रापि तेषां नो निकरणायै।
पदार्थ-एत्थऽवि-यहां पर भी। तेसिं-उनके द्वारा मान्य। सिद्धान्त-शास्त्र। नो निकरणाए-निर्णय करने में समर्थ नहीं हैं।