SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3 141 __मूलार्थ-कुछ विचारक कहते हैं कि हमें पीने के लिए सचित्त जल का उपयोग करना कल्पता है और कुछ कहते हैं कि हमें विभूषा अर्थात् स्नान करने एवं वस्त्र-प्रक्षालन आदि कार्यों के लिए सचित्त जल का उपयोग करना कल्पता है। हिन्दी-विवेचन जैमेतर परम्परा में सचित जल के सम्बन्ध में क्या व्यवस्था है, इस बात को प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। यह तो स्पष्ट है कि पानी की सजीवता को जैनों के अतिरिक्त किसी ने माना ही नहीं। इसलिए जैनेतर शास्त्रों में उसकी सजीवता एवं उसके निषेध का वर्णन नहीं मिलता। इस कारण जैनेतर परम्परा में प्रवृत्तमान साधुसंन्यासी सचित्त जल का उपभोग करते हुए सकुचाते नहीं, क्योंकि उन्हें इस बात का बोध ही नहीं कि यह भी जीव है, चेतन है। इसलिए वे उसकी हिंसा से बचने का प्रयत्न न करके, सदा उसके आरम्भ-समारम्भ में संलग्न रहते हैं। ___ सचित्त जल का उपयोग करने वाले विचारकों में भी मतैक्य नहीं है। आजीविका एवं भस्मस्नायी परम्परा के अनुयायी कहते हैं कि हमारे सिद्धान्त के अनुसार सचित्त जल पीने में कोई दोष नहीं है और न उसका निषेध ही किया है, परन्तु शारीरिक विभूषा के लिए उसका उपयोग करना अकल्पनीय है। पर, शाक्य और परिव्राजक संन्यासी स्नान एवं पीने दोनों कार्यों के लिए सचित्त जल को कल्पनीय मानते हैं। यह ठीक है कि जैनेतर परम्परा के विचारकों में पानी का उपयोग करने में एकरूपता नहीं है। कुछ सचित्त जल का केवल पीने के लिए उपयोग करते हैं, तो कुछ पीने एवं स्नान करने के लिए। जो भी कुछ हो, इतना अवश्य है कि उन्हें उनकी सजीवता का बोध नहीं है और न उन जीवों के प्रति उनके मन में रक्षा की भावना ही है। अतः उनका कथन युक्ति-संगत नहीं है। और जिस आगम के आधार से वे सचित्त का उपभोग करते हैं, वह आगम भी आप्त-सर्वज्ञ-प्रणीत न होने से प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। और अनुमानादि प्रमाणों से हम इस बात को स्पष्ट देख चुके हैं कि जल में सजीवता है। इसलिए सचित्त जल के आसेवन को निर्दोष नहीं कहा जा सकता। सूत्रकार भी इसी विषय में कहते हैं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy