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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अप्काय के जीवों की आज्ञा नहीं है और साथ में तीर्थंकर भगवान की भी सचित्त पानी का उपयोग करने की आज्ञा नहीं है। यहां तक कि प्राण भी चले जाएं, तब भी साधु सचित्त जल पीने का विचार तक न करे' । अतः सचित्त जल का उपयोग करना जिन - आज्ञा का उल्लंघन करना है, इसलिए इसे भगवान की आज्ञा की चोरी भी माना गया है ।
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यह सारा आदेश साधु के लिए है, गृहस्थ के लिए नहीं क्योंकि साधु एवं गृहस्थ की अहिंसा में अन्तर है। साधु हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है और गृहस्थ उसका एक देश से त्याग करता है । वह एकेन्द्रिय-हिंसा का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता और त्रस जीवों की हिंसा में भी वह निरपराधी प्राणियों की निरपेक्ष बुद्धिं से हिंसा करने का त्याग करता है । उसके विरोधी हिंसा का त्याग नहीं होता । अपने परिवार एवं देश पर आक्रमण करने वाले शत्रु के आक्रमण का मुकाबला - सामना करने का उसके त्याग नहीं होता। साधु का एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी प्राणियों की हिंसा का त्याग होता है । जैसे साधु और गृहस्थ के जीवन में अहिंसा की साधना में अंतर रहा हुआ है, उसी तरह अचौर्य ब्रत में भी अन्तर है । साधु के सचित्त जल का त्याग है, इसलिए उसका उपयोग करने में हिंसा के साथ चोरी भी लगती है । परन्तु गृहस्थ ने अभी ऐसी सूक्ष्म चोरी का त्याग नहीं किया है।
अतः प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए यह निर्देश किया है कि वह सचित्त जल का उपभोग न करे । उसका आरंभ - समारंभ करने में हिंसा होती है और साथ में चोरी का भी दोष लगता है । अन्य सांप्रदायिक विचारकों का इस विषय में क्या मन्तव्य है, उसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं अदुवा विभूसाए ॥28॥
छाया–कल्पते नः कल्पते नः पातुं अथवा विभूषायै ।
पदार्थ - कप्पाइ – कल्पता है । णे-हम को । कप्पइ - कल्पता है । पाउं - पीने के लिए। अदुवा - अथवा । विभूसाए - विभूषा के लिए ।
1. तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुच्छी लज्जसंजए ।
सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे ॥
— उत्तराध्ययन सूत्र, 2/4