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________________ 130 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध है बाहरी विकास को देखने-परखने वाली दृष्टि का। उस दृष्टि में खान से निकले हुए हीरे की अपेक्षा जौहरी की दुकान पर पड़े सुघड़ हीरे का अधिक मूल्य है और उससे भी अधिक मूल्यवान है आभूषण में जड़ा हुआ हीरा। तो यह सारा भेदं बाहरी दृष्टि का है। अन्तर्दृष्टि से हीरा हर दशा में मूल्यवान है, कीमती है और जौहरी की अन्तर दृष्टि उसे पत्थर के रूप में भी पहचान लेती है। यही स्थिति आत्मा के संबन्ध में है। . स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं। हम भले ही बाहरी दृष्टि से कुछ अल्प विकसित आत्माओं की चेतना को स्पष्ट रूप से न देख सकें, परन्तु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी पुरुषों की आत्मदृष्टि उसे स्पष्टतया अवलोकन करती है, इसलिए हमें उसके अस्तित्व का अपलाप नहीं करना चाहिए। क्योंकि आत्म-स्वरूप की दृष्टि से उसकी और . हमारी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। अतः अप्कायिक जीवों की आत्मा का अपलाप करने का अर्थ है, अपने अस्तित्व का अपलाप करना और अपने अस्तित्व का अपलाप या निषेध करने का तात्पर्य है कि अप्कायिक जीवों की सत्ता का निषेध करना। इस तरह सूत्रकार ने सभी आत्माओं का स्वरूप की अपेक्षा से आत्मैक्य सिद्ध कर के इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि किसी एक के आत्मअस्तित्व को मानने से इनकार करने का अर्थ है, समस्त जीवों की आत्मा के अस्तित्व का निषेध करना और यह आगम, तर्क एवं अनुभव से विपरीत है। इसलिए मुमुक्षु को अप्कायिक जीवों का एवं अपनी आत्मा का अपलाप नहीं करना चाहिए। 'अभ्याख्यान' शब्द का अर्थ है-असदभियोग अर्थात् झूठा आरोप लगाना जैसे-जो व्यक्ति चोर नहीं है, उसे चोर कहना और जो चोर है उसे अचोर कहना या साहूकार बताना अभ्याख्यान है। इसी तरह अप्कायिक जीवों में चेतनता होते हुए भी उन्हें निश्चेतन या निर्जीव कहना, उनकी सजीवता पर मिथ्या आरोपण है, इसलिए इसे अभ्याख्यान कहा गया है। यह सत्य है कि अप्काय में चेतना का अल्प विकास है। परन्तु इससे हम उसकी सत्ता का निषेध नहीं कर सकते। क्योंकि उसकी चेतना अनुभव-सिद्ध है। वह उपयोगी है और घी-तेल की तरह द्रवित है। इससे हम उसे निर्जीव नहीं कह सकते। क्योंकि सभी उपयोगी एवं तरल पदार्थ निर्जीव नहीं होते। जैसे-घोड़ा, गाय-भैंस आदि पशु 1. अभ्याख्यानं नाम-असदभियोगः, यथाऽचौरं चौरमित्याह।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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