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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
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आत्मा से । लोयं - अप्काय रूप लोक का । अब्भाइक्खिज्जा - अभ्याख्यान – अपलाप । अत्ताणं - आत्मा का । अब्भाइक्खिज्जा - णेव - निषेध नहीं करना चाहिए । जे- जो व्यक्ति । लोयं - अप्काय रूप लोक का । अब्भाइक्खइ - निषेध करता है । से- वह । अत्ताणं - आत्मा का । अब्भाइक्खइ - निषेध करता है । जे - जो । अत्ताणं- आत्मा का निषेध करता है। से - वह । लोयं अब्भाइक्खइ - अप्काय रूप लोक का निषेध करता है ।
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मूलार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि है, जम्बू ! मैं तुम्हें कहता हूं कि मुमुक्षु को स्वयं अप्काय रूप लोक का कभी भी अपलाप-निषेध नहीं करना चाहिए और अपनी आत्मा के अस्तित्व से भी इन्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो व्यक्ति अप्काय का अपलाप करता है, वह आत्मा का भी अपलाप करता है और जो व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है, वह अप्काय के संबन्ध में उसी भाषा का प्रयोग करता है 1
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में अपनी आत्मा एवं अप्कायिक जीवों की आत्मा के साथ तुलना करके अप्काय में चेतना है, इस बात को सिद्ध किया है। यह हम पहले देख चुके हैं कि आत्मस्वरूप की दृष्टि से संसार की समस्त आत्माएं एक समान हैं । अप्काय में स्थित आत्मा में एवं मनुष्य शरीर में परिलक्षित होने वाली आत्मा में स्वरूप की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। यहां तक कि सर्व कर्मों से मुक्त सिद्धों की शुद्ध आत्मा का स्वरूप भी वैसा ही है । आत्मस्वरूप की दृष्टि से किसी आत्मा में अन्तर नहीं है, अन्तर केवल चेतना के विकास का है । अप्कायिक जीवों की अपेक्षा मनुष्य की चेतना अधिक विकसित है और सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुका है, वहां आत्मा की शुद्ध ज्योति पूर्ण रूप से प्रकाशमान है, आवरण की कालिमा को जरा भी अवकाश नहीं है । इस तरह स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं, भेद केवल विकास की अपेक्षा से है ।
जैसे जवाहरात की दृष्टि से सभी हीरे समान गुण वाले हैं- भले ही वे खान में मिट्टी से लिपटे हों, जौहरी की दुकान पर पड़े हों या स्वर्ण आभूषण में जड़े हों, स्वरूप की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है । जौहरी की दृष्टि से सभी हीरे मूल्यवान हैं। भेद