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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
___ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'लोक' शब्द का विषय के अनुरूप अप्काय लोक अर्थ होता है और 'अकुओभयं' संयम का परिबोधक है और अप्काय का विशेषण भी है। संयम अर्थ में इसकी परिभाषा इस प्रकार है-“न विद्यते कुतश्चिद्धेतोःकेनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं यस्मात् सोऽयं अकुतोभयः संयमः तमनुपालयेदिति सम्बन्धः।"
अर्थात्-जिस साधना या क्रिया से जीवों को किसी भी प्रकार का या किसी भी प्रकार से भय न हो, उसे 'अकुतोभयः' कहते हैं; वह साधना का प्राणभूत संयम ही है।
जब उक्त शब्द का अप्काय के विशेषण के रूप में प्रयोग करते हैं, तो उसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार बनेगी-“अकुतो भयः अप्कायलोकः यतोऽसौ न कुतश्चिद्भयमिच्छति मरणभीरूत्वात्।” अर्थात्-मरणभीरु होने के कारण अप्काय के जीव किसी से भी भयभीत होने के इच्छुक नहीं हैं, अतः इसे 'अकुतोभयः' कहते हैं। . ___ 'अभिसमेच्चा-अभिसमेत्य' शब्द अभि + सम् + इत्वा के संयोग से बना है। अभि का अर्थ है-सब प्रकार से, सम् का अभिप्राय है-अच्छी तरह से, सम्यक् प्रकार से और इत्वा का तात्पर्य है-जान कर। अस्तु 'अभिसमेच्चा' का अर्थ हुआ-सम्यक् प्रकार से जानकर।
इस तरह प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने भगवान की वाणी से अप्काय के जीवों के स्वरूप को जानकर, भगवान की आज्ञा के अनुसार उनकी यतना करे। अब सूत्रकार अप्काय में जो चैतन्य-सजीवता है; उसका अपलाप न करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं
मूलम्-से बेमि णेव सयं लोगं अब्माइक्खिज्जा णेव अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइक्खइ ॥23॥
छाया-सः (अहं) ब्रवीमि नैव स्वयं लोकं प्रत्याचक्षीत् (अभ्याख्यायेत्) नैव आत्मानं प्रत्याचक्षीत, यो लोकं अभ्याख्याति सः आत्मानम् अभ्याख्याति, यः आत्मानम् अभ्याख्याति सः लोकं अभ्याख्याति।
पदार्थ से-वह (मैं) तुम्हारे प्रति। बेमि-कहता हूँ कि। णेव-नहीं। सयं-अपनी