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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
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की योग्यता एवं उस के स्वरूप का वर्णन किया है। अब अगले सूत्र में सूत्रकार अप्कायिक जीवों के संबन्ध में वर्णन करेंगे। किन्तु अप्कायिक जीवों का विस्तार से विवेचन करने के पूर्व सूत्रकार ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि साधक को इस बात पर विश्वास एवं श्रद्धा रखनी चाहिए कि अप्काय में जीव हैं, उस का आरंभ-समारंभ करने से पाप कर्म का बन्ध होता है। यदि कभी अपनी बुद्धि काम नहीं करती है, तब भी तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित एवं महापुरुषों द्वारा आचरित मार्ग पर श्रद्धा रखकर वीतराग की आज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिए। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-लोगं न आणाए अभिसमेच्चा अकुओभयं ॥22॥ छाया-लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य अकुतो भयम्।
पदार्थ-लोग-अप्काय रूप लोक को। च-और, अन्य पदार्थों को। आणायतीर्थंकर भगवान की आज्ञा से। अभिसमेच्चा-जानकर। अकुओभयं-संयम का परिपालन करे।
मूलार्थ-तीर्थंकर भगवान के वचनों से अप्काय के स्वरूप को जानकर संयम का परिपालन करे। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि वीतराग की वाणी पर पूर्ण विश्वास रखकर तदनुसार ही आचरण करना चाहिए। क्योंकि जब तक साधक छद्मस्थ है, तब तक उसके ज्ञान में अपूर्णता होने के कारण वह वस्तु के स्वरूप को भली-भांति नहीं भी देख पाता। कई बातों के लिए उसके मन में संदेह उठना स्वाभाविक है। परन्तु वीतराग के वचनों में संशय करने को अवकाश ही नहीं है। क्योंकि वे सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होने से प्रत्येक द्रव्य के त्रैकालिक स्वरूप को जानते-देखते हैं। इसलिए उनके वचनों के आधार पर साधक प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को सम्यक्तया जान सकता है और उनके वचनानुसार गति करके एक दिन सिद्धत्व को पा सकता है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई है।