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________________ 124 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध होने वाले साधक के कर्तव्य का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा वियहित्ता विसोत्तियं ॥20॥ छाया-यया श्रद्धया निष्कान्तः तामेव अनुपालयेत्, विहाय विस्रोतसिकां। पदार्थ-जाए-जिस। सद्धाए-श्रद्धा से। निक्खंतो-घर से निकला है-दीक्षित हुआ है। विसोतियं-शंका को। वियहित्ता-छोड़े, कर। तमेव-उसी श्रद्धा का जीवन-पर्यन्त। अणुपालिज्जा-परिपालन करे। . मूलार्थ-जिस श्रद्धा एवं त्याग-वैराग्य भाव से घर का परित्याग किया है, उसी श्रद्धा के साथ सब तरह की शंकाओं से रहित होकर जीवन-पर्यन्त संयम का परिपालन करे। हिन्दी-विवेचन ___ आगम में दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार का वर्णन मिलता है। प्रस्तुत सूत्र में दर्शनाचार का विवेचन किया गया है। वस्तु-तत्त्व को जानने की अभिरुचि या तत्त्वों पर श्रद्धा करने का नाम दर्शन है। दर्शनाचार को पांचों में पहला स्थान दिया गया है। इसका कारण यह है कि तत्त्वों को जानने की अभिरुचि होने पर ही साधक ज्ञान की साधना में संलग्न हो सकता है। इसलिए ज्ञान से पहले दर्शन-श्रद्धा का होना जरूरी है। इसी तरह चारित्र-संयम, तप एवं वीर्याचार पर श्रद्धा-विश्वास होने पर ही वह उनको स्वीकार कर सकता है, अन्यथा नहीं। यही कारण है कि श्रद्धा को विशेष महत्त्व दिया गया है। आगम में भी मनुष्य जन्म, शास्त्र-श्रवण, संयम मार्ग में प्रवृत्त होने आदि को दुर्लभ बताया गया है, परन्तु श्रद्धा के लिए कहा गया है कि वह दुर्लभ ही नहीं, परम दुर्लभ है “सद्धा परम दुल्लहा" इसलिए सूत्रकार ने मुमुक्षु को विशेष रूप से सावधान एवं जागृत करते हुए कहा है कि हे साधक! तू जिस श्रद्धा-विश्वास के साथ साधना-पथ पर गतिशील हुआ - है, उस श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता को मत आने देना। अपने हृदय में किसी
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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