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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3 निर्जरा करके शुद्ध आत्म-स्वरूप प्रकट करने या निर्वाण-मोक्ष पद पाने हेतु, साधना करता है, वही साधक संयम-सम्पन्न है, अनगार है। दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि साधक इस लोक में भौतिक सुख पाने के लिए तपस्या न करे, परलोक में स्वर्ग एवं ऐश्वर्य पाने की आकांक्षा से तप न करे, यश-कीर्ति पाने हेतु तपस्या न करे। किन्तु एकान्त निर्जरा के लिए तपश्चर्या करे । जैसे तप के लिए कहा गया है, उसी तरह समस्त धार्मिक क्रियाओं के लिए कहा है। बिना किसी भौतिक इच्छा-आकांक्षा या निदान के, साधना या संयम पर गतिशील होना यही मोक्षमार्ग है और इस मार्ग पर आरूढ़ साधक ही सच्चा एवं वास्तव में अनगार है।
__ अनगार का तीसरा विशेषण है 'अमाय' अर्थात् छल-कपट नहीं करने वाला। माया को भी जीवन का बहुत बड़ा दोष माना गया है। आगम में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि “माई मिच्छादिट्ठी, अमाई सम्मदिट्ठी" अर्थात्-माया एवं छल-कपट-युक्त व्यक्ति मिथ्यादृष्टि कहा गया है। संसार के कार्यों में ही नहीं, धर्म-प्रवृत्ति में भी छल-कपट करना दोष माना गया है। 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ ने अपने साधु के पूर्वभव में माया-पूर्वक तप किया था। संक्षेप में कथा इस प्रकार है-उनके छह साथी सन्त थे। सब एक साथ तप शुरू करते, मल्लिनाथ का जीव सन्त यह सोचता कि मैं इन से अधिक तप करूं, पर करूं कैसे? यदि इन्हें कह दूंगा कि मुझे आज पारणा नहीं, तपस्या करनी है, तो यह भी तप कर लेंगे। इस तरह तप में मैं इनसे आगे नहीं रह सकूँगा। अतः उन्होंने साथी सन्तों से कपट करना शुरू किया। उन्हें पारणा के लिए कह देते और स्वयं तप कर लेते। इस तरह मायायुक्त तप का परिणाम यह रहा कि उन्होंने स्त्री वेद का बन्ध किया। इस से यह स्पष्ट हो गया कि उत्कृष्ट से उत्कष्ट क्रिया में भी माया करना बुरा है। इसीलिए सूत्रकार ने माया-रहित, मोक्ष-मार्ग पर गतिशील, संयम-संपन्न व्यक्ति को
ही अनगार कहा है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही सर्व प्राणियों की रक्षा कर सकता है। ... अणगार के यथार्थ स्वरूप को बताने के बाद, साधना या त्याग मार्ग पर प्रविष्ट
1. चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ, तंजहा-1-नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, 2-नो
परलीगठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, 3-नो कित्तिवन्नसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, 4-नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, चउत्थं पयं भवइ। -दशवैकालिक सूत्र 9/4/4