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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अनगार शब्द का शाब्दिक अर्थ है-घर-रहित। परन्तु घर का परित्याग करने मात्र से ही साधुत्व नहीं आ जाता है। उसके लिए जीवन को मांजने एवं परिष्कृत करने की आवश्यकता है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने अनगार शब्द के साथ तीन विशेषणों का प्रयोग किया है। पहला विशेषण है-उज्जुकडे(ऋजुकृतः) इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार आचार्य शीलांक ने लिखा है- .
“ऋजुः-अकुटिलः संयमो दुष्प्रणिहितमनोवाक्काय-निरोधः सर्वसत्वसंरक्षणप्रवृत्तत्वादयैकरूपः।" ____अर्थात् सरल, कुटिलता से रहित, संयम मार्ग में प्रवृत्त, दुष्कार्य में प्रवृत्त मन, वचन और काय का निरोधक, समस्त प्राण, भूत, जीव, सत्व के संरक्षण में प्रवृत्तमान साधक को ऋजु कहते हैं। तात्पर्य यह निकला कि संयम मार्ग में प्रवृत्तमान साधक को अनगार कहा है। क्योंकि कुछ व्यक्ति घर का परित्याग करके अपने आप को अनगार या साधु कहने लगते हैं। परंतु घर का परित्याग करने के साथ वे कुटिलता एवं सावध कार्यों का परित्याग नहीं करते, मन, वचन और काय का दुष्कार्यों से निरोध नहीं करते। इसलिए वे वास्तव में अनगार नहीं हैं। इसी बात को सूत्रकार ने 'ऋजुकृतः' विशेषण से स्पष्ट किया है। अनगार वही है, जो अपनी इन्द्रियों, मन एवं योगों को नियन्त्रण में रखता है, सब प्राणियों की दया एवं रक्षा करता है।
कुछ व्यक्ति अपने स्वार्थ को साधने के लिए, यश-ख्याति पाने के लिए या भौतिक सुख एवं स्वर्ग आदि पाने की अभिलाषा से इन्द्रिय एवं मन पर भी नियन्त्रण कर लेते हैं। फिर भी वे वास्तव में अनगार नहीं कहे जा सकते, जब तक उनकी प्रवृत्ति मोक्ष-मार्ग में नहीं है। इस बात को सूत्रकार ने 'नियाय पडिवण्णे' विशेषण से स्पष्ट किया। इसकी परिभाषा करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि
"नियाग-सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रात्मकं मोक्षमार्ग-प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्नः।"
अर्थात् सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र से युक्त मोक्ष मार्ग पर गतिशील साधक ही नियागप्रतिपन्न कहा गया है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि जिस साधक की साधना, इंद्रियों एवं योगों पर नियन्त्रण एवं तपस्या आदि अनुष्ठान बिना किसी भौतिक आकांक्षा-अभिलाषा के होता है अर्थात् यों कहिए कि जो केवल कर्मों की