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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2 हैं, वे अपरिज्ञातकर्मा हैं। अर्थात् न तो उन्हें पृथ्वीकाय के स्वरूप का ही सम्यक् बोध है और न आरंभ-समारंभ का ही त्याग है। इसलिए वे अनेक तरह के शस्त्रों से पृथ्वीकाय का छेदन-भेदन करके उसे दुःख, कष्ट एवं पीड़ा पहुंचाते हैं और पाप कर्मों का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करते हैं। क्योंकि जब वे पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं, तो उसके साथ उसके आश्रित अन्य त्रस एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा होती है। ऐसा जानकर प्रबुद्ध पुरुष या मुनि पृथ्वीकाय की न स्वयं हिंसा करे, न दूसरे व्यक्ति से हिंसा करावे, न हिंसा करने वाले व्यक्ति को अच्छा ही समझे। यह प्रस्तुत सूत्र का सार है। यों भी कह सकते हैं कि त्रिकरण और त्रियोग से आरंभ-समारंभ का त्याग करना ही जीवन का, साधना का, संयम का सार है। ऐसा मैं कहता हूँ। ___॥शस्त्रपरिज्ञा, द्वितीय उद्देशक समाप्त॥ 1. 'त्तिबेमि' का विवेचन प्रथम उद्देशक के अन्त में की गई व्याख्या के समान समझें।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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