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________________ अध्यात्मसार: 2 मूलम्-संति पाणा पुढो सिया लज्जामाणा पुढो पास अणगारामो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसई॥1/2/15॥ मूलार्थ-हे शिष्य! पृथ्वीकाय के जीव प्रत्येक शरीर वाले और एक दूसरे से संबंधित हैं, इसलिए हिंसा से निवृत्त होने वाला साधक प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से इन जीवों के स्वरूप को जानकर तथा लोकोत्तर लज्जा से मुक्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की रक्षा करता हुआ विचरण करता है। इसके विपरीत कुछ विचारक अपने आपको अनगार, त्यागी एवं जीवों के संरक्षक होने का दावा करते हुए भी अनेक तरह के शस्त्रास्त्रों से पृथ्वीकाय जीवों का आरंभ-समारंभ करके उनकी हिंसा करते हैं। आरंभसमारंभ एवं पृथ्वी के शस्त्र से वे पृथ्वीकाय के जीवों का ही नहीं, अपितु इसके आश्रय से रहे हुए पानी, वनस्पति, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय आदि जीवों की भी घात करते हैं। इस बात को तू देख, समझ। . पृथ्वीकाय के जीव प्रत्येक शरीरी हैं। कुछ लोग समस्त पृथ्वी को एक देवता के रूप में मानते हैं, पर यह एक मिथ्या धारणा है। धरती माँ है, यह देवस्वरूप है, यह उपमा है। उपमा रूप में मानो तो ठीक है। लेकिन वास्तविक मान गये, तब यह धारणा मिथ्या है। पृथ्वी देव-अधिष्ठित हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक देवों का अपना-अपना क्षेत्र है, अपना-अपना स्थान है। लेकिन वास्तविक रूप से पृथ्वी तिर्यंच योनि का जीव है। जैसे किन्हीं जीवों का हम पर उपकार है, उस उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना ठीक है। लेकिन पृथ्वी को देव मानना मिथ्या है। ___ नमन-ऐसे तो पंचपरमेष्ठी में सभी का समावेश हो जाता है। अरिहंत सर्वोत्तम हैं, उनकी सेवा में 64 इन्द्र हैं। जो अरिहंत को नमन करता है, उस - अरिहंत को नमन करने में सबको नमन हो जाता है। जो अरिहंत की भक्ति करता
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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