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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलार्थ - पृथ्वीकाय के जीवों पर द्रव्य और भाव रूप से शस्त्र का प्रयोग न करने वाले पुरुषों को पृथ्वीकाय के आरम्भ का परिज्ञान होता है । इसलिए वे प्रबुद्धज्ञान पुरुष पृथ्वीकायिक जीवों पर न तो स्वयं शस्त्र का प्रयोग करते हैं, न दूसरे व्यक्ति से शस्त्र का प्रयोग कराते हैं और न शस्त्र का प्रयोग करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन - समर्थन ही करते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति शस्त्र प्रयोग से पृथ्वीकाय के जीवों को होने वाली वेदना को जानता है, वही व्यक्ति उस समारंभ से होने वाले कर्म-बन्ध को भली-भांति समझ सकता है और उस स्वरूप को सम्यक्तया जानने वाले मुनि को ही परिज्ञातकर्मा कहा है ऐसा मैं कहता हूं । 116 हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य और भाव दोनों तरह के शस्त्रों को लिया गया है । स्वकायअपना शरीर, परकाय - दूसरे का शरीर और उभयरूप - स्व- पर काय, इन तीनों को द्रव्य शस्त्र में लिया गया है और असंयम एवं मन, वचन और शरीर के योगों की दुष्परिणति को भाव शस्त्र माना गया है। सूत्रकार ने इस सूत्र में इस बात को अभिव्यक्त किया है कि मुमुक्षु पृथ्वीकायिक जीवों पर किए जाने वाले शस्त्र प्रयोग से जो उन्हें वेदना होती है तथा उससे आरंभ-समारंभ करने वाले व्यक्ति को जो कर्मबन्ध होता है, उसे समझे और उस सावद्य क्रिया का परित्याग करे । प्रस्तुत सूत्र पूरे उद्देशक का सार रूप है। क्योंकि जब तक साधक को पृथ्वीका की सजीवता एवं पृथ्वीकायिक जीवों का आरंभ समारंभ करने से होने वाले कर्म का परिज्ञान नहीं हो जाता, तब तक वह उसका परित्याग नहीं कर सकता। इसलिए हिंसा से विरत होने का उपदेश देने से पहले विस्तार से पृथ्वीकाय की चेतना एवं आरंभ-समारंभ से उसे होने वाली वेदना का स्वरूप बताया गया और फिर यह बताया गया कि जो प्रबुद्ध पुरुष उसकी हिंसा का आरंभ समारंभ का त्याग करता है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा है। इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि ज्ञान का महत्व त्याग के साथ है। अतः पहले पृथ्वीकाय के स्वरूप को एवं हिंसा से होने वाले कर्म-बन्ध को भली-भांति जाने और जानने के बाद आरंभ-समारंभ का त्याग करे । इससे यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति पृथ्वीकाय के आरंभ-समारंभ में प्रवृत्तमान
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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