SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2 115 इस तरह प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि पृथ्वीकाय सजीव है और अनेक तरह के शस्त्रों के प्रयोग से उसे वेदना होती है और उसकी हिंसा करने से आत्मा को भविष्य में अहित का लाभ होता है तथा बोध की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए मुमुक्षु को पृथ्वीकाय की हिंसा से विरत रहना चाहिए। इस बात को समझाते हुए सूत्रकार कहते हैं ___ मूलम्-एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति, तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेज्जा णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेज्जा णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मे त्ति बेमि ॥18॥ 'छाया-अत्र शस्त्रं समारंभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथिवीशस्त्रं समारम्भेत्, नैव अन्यैः पृथिवीशस्त्रं समारम्भयेत्, नैव अन्यान् पृथिवीशस्त्रं समारम्भमाणान् समनुजानीयात्, यस्यैते पृथिवीकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति सः खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि। पदार्थ-एत्थ-पृथ्वीकाय में। सत्थं-शस्त्र से जो। असमारंभमाणस्स-समारम्भ नहीं करते उन को। इच्चेते-ये खनन, कृषि आदि। आरम्भा-आरम्भ-समारम्भ। परिण्णाता-परिज्ञात होते हैं। तं परिणाय-उस पृथ्वीकाय के समारम्भ को कर्म-बन्ध का कारण जानकर। मेहावी-प्रबुद्ध पुरुष-बुद्धिमान। नेव-न तो। सयं-स्वयं ही। पुढविसत्थं-समारंभेज्जा-पृथ्वीकाय का शस्त्र से आरम्भ-समारम्भ करे। णेवण्णेहि-न दूसरे व्यक्तियों से। पुढविसत्थं समारंभावेज्जा-पृथ्वीकाय का शस्त्र द्वारा आरम्भ करावे। णेवण्णे-न अन्य का जो। पुढविसत्थं समारंभंते-पृथ्वीकाय का शस्त्र से आरम्भ कर रहा हो। समणुजाणेज्जा-अनुमोदन-समर्थन करे। जस्सेतेजिसको ये। पुढविकम्मसमारंभा-पृथ्वीकायिक जीवों के हिंसाजनक व्यापार। परिण्णाया-परिज्ञात। भवंति-होते हैं। से हु-वही। मुणी-मुनि। परिणायकम्मापरिज्ञातकर्मा होता है। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy