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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध से सयमेब पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं सभारंभंते समणुजाण ॥16॥ 106 छाया - तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमानन-पूजनाय, जाति-मरण - मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुं सः स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारम्भते, अन्यैश्च पृथिवी - शस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा पृथिवीशस्त्रं समारम्भमाणान् समनुजानीते । पदार्थ- - खुल- - यह शब्द वाक्यालंकारार्थ में है । तत्थ - थ - पृथ्वीकाय के समारम्भ में। भगवया - भगवान ने । परिण्णा - परिज्ञा का । पवेइया - उपदेश दिया है। चैव-. निश्चय ही । इमस्स - इस । जीवियस्स - जीवन के लिए । परिवंदण - प्रशंसा के लिए | माणण - मान के लिए । पूयणाए - पूजन के लिए । जाइ - मरण - मोयणाएजन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए और । दुक्खपडिघायहेउं - दुःखों के नाश के लिए। से- वह, सुख की इच्छा करने वाला । सयमेव - स्वयं ही । पुढविसत्थं - पृथ्वीकाय की घात करने वाले शस्त्र का । समारम्भई - समारम्भ करता है । वा-: अथवा। अण्णेहिं-अन्य के द्वारा । पुढविसत्थं - पृथ्वी की हिंसा करने वाले शस्त्र से। समारंभेइ-समारंभ कराता है । वा - अथवा । अण्णे - अन्य । पुंढविसत्थं - पृथ्वी का समारम्भ करने वाले शस्त्र से। समारंभंते - समारम्भ या प्रयोग करने वाले को । समणुजाणइ - अच्छा जानता है, उसका समर्थन करता है । मूलार्थ - पृथ्वीकाय के समारंभ में भगवान ने परिज्ञा करने का उपदेश दिया है। क्योंकि कुछ लोग इस जीवन के लिए, प्रशंसा पाने के हेतु, मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा से, जन्म-मरण से छुटकारा पाने तथा दुःखों का उन्मूलन करने की अभिलाषा रखते हुए पृथ्वीकाय के जीवों की घात करने वाले शस्त्र का स्वयं प्रयोग करते हैं, दूसरे व्यक्ति से कराते हैं और शस्त्र का प्रयोग करने वाले का अनुमोदन-समर्थन करते हैं । हिन्दी - विवेचन मनुष्य भौतिक जीवन को सुखमय - आनन्दमय बनाने के लिए कई प्रकार के अपकार्य करते हुए नहीं हिचकिचाता। वह अपने जीवन को सुखद एवं ऐश्वर्य सम्पन्न
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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