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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2
बनाने के लिए पृथ्वीकाय आदि छह काय के जीवों की या यों कहिए, सभी जाति के जीवों की हिंसा करता है । अपने स्वार्थ के लिए वह दूसरे प्राणियों का शोषण करता है, उन्हें पीड़ित - उत्पीड़ित करता है, उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करता है । स्वयं उनकी हिंसा करता है, दूसरे व्यक्ति को आदेश देकर उक्त जीवों की हिंसा कराता है और उक्त जीवों की हिंसा करने वाले हिंसक का अनुमोदन - समर्थन करता है ।
इसलिए भगवान महावीर ने पृथ्वीकाय के समारंभ में परिज्ञा या विवेक-यतना करने का उपदेश दिया है। साधक को यह बताया गया है कि वह ज्ञ परिज्ञा से पृथ्वीकाय के स्वरूप को भली-भांति समझे । उसमें भी मेरे जैसी असंख्यात - प्रदेशी ज्ञानमय आत्मा है, उसे भी मेरी तरह सुख-दुख का संवेदन होता है, आदि बातों का बोध करे और उसके चेतनामय स्वरूप को जानकर उसकी हिंसा करने, कराने और अनुमोदन करने का त्याग करे । मन-वचन-काय के योगों से पृथ्वीकाय की हिंसा न करे, अर्थात् विवेक के साथ संयम साधना में प्रवृत्ति करे । इस साधना से जो लब्धिशक्ति प्राप्त हो, उसका उपयोग भौतिक सुख-साधनों को प्राप्त करने में न करे। यदि वह ऐहिक सुखों एवं भोगों को प्राप्त करने में उस शक्ति - लब्धि का प्रयोग करता है, तो वह साधना-मार्ग से च्युत होकर संसार में परिभ्रमण करता है । अतः साधक को साधना से प्राप्त लब्धि का उपयोग भौतिक सुखों को प्राप्त करने में नहीं लगाना चाहिए।
पृथ्वीकाय के आरंभ-समारंभ में व्यस्त रहने वाले जीवों को किस फल की प्राप्ति होती है, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - तं से अहिआए, तं से अबोहिए, से तं संबुज्झमाणे आयाणियं समुट्ठाय सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं णायं भवति, एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्म समारंभेणं, पुढविसत्थं समारंभ माणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ,
1. प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करने के जो कारण बताए गए हैं, उनका विवेचन पीछे कर चुके हैं। देखें सूत्र 11 की व्याख्या, पृष्ठ... 72।