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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2
इति एके प्रवदमानाः यत् इदम् विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथिवी कर्म - समारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारम्भमाणः अन्यान् अनेक रूपान् प्राणान् विहिंसन्ति ।
पदार्थ - पाणा - प्राणी । पुढो - पृथक् पृथक् रूप से । सिया - पृथ्वी के आश्रित हैं। लज्जमाणा-संयमानुष्ठान-परायण पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा से विरत । पुढो - प्रत्यक्ष - ज्ञानी - अवधि, मनः पर्यव या केवल ज्ञान से युक्त तथा परोक्ष ज्ञानी-मति और श्रुत ज्ञान से युक्त । पास - तू देख । एगे - कोई एक । अणगारा मो त्ति - हम अणगार हैं, इस प्रकार । पवयमाणा - बोलते हुए । जमिणं - इस पृथ्वीकाय को । विरूवरूवेहिं- अनेक तरह के । सत्थेहिं - शस्त्रों के द्वारा | पुढवि - कम्म-समारंभेणंपृथ्वीकाय - सम्बन्धी आरम्भ - समारम्भ करने से । पुढविसत्थं - पृथ्वी काय के शस्त्र का । समारम्भेमाणा-प्रयोग करते हुए । अण्णे - अणेग रूवे - उस पृथ्वीकाय के आश्रित 1. अन्य अनेक तरह के जीवों के । पाणे- प्राणों की । विहिंसइ - हिंसा करता है 1
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मूलार्थ - हे शिष्य ! पृथ्वीकाय के जीव प्रत्येक शरीर वाले और एक दूसरे से संबन्धित हैं। इसलिए हिंसा से निवृत्त होने वाला साधक प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से इन जीवों के स्वरूप को ज़ानकर तथा लोकोत्तर लज्जा से मुक्त होकर पृथ्वीकायिक
की रक्षा करता हुआ विचरण करता है। इसके विपरीत कुछ विचारक अपने आपको अणगार, त्यागी एवं जीवों के संरक्षक होने का दावा करते हुए भी अनेक तरह के शस्त्रास्त्रों से पृथ्वीकाय का आरम्भ समारम्भ करके जीवों की हिंसा करते हैं; आरम्भ - समारम्भ एवं पृथ्वी के शस्त्र से वे पृथ्वीकाय के जीवों का ही नहीं,
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अपितु इसके आश्रय से रहे हुए पानी, वनस्पति, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय आदि जीवों की
भी घात करते हैं । इस बात को तू देख, समझ !
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि पृथ्वीकाय प्रत्येकशरीरी है'। इसमें असंख्यात
1. तिलों की पपड़ी में जैसे अनेकों तिल होते हैं, वैसे ही पृथ्वीकाय में स्थित जीव भिन्न-भिन्न शरीर में रहते हैं । साधारण वनस्पति की तरह इनके एक शरीर में अनन्त जीव नहीं रहते। इसके एक शरीर में एक ही जीव रहता है। इसलिए पृथ्वीकाय को प्रत्येक शरीरी कहते हैं ।