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________________ 100 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध सीधा बनाना दुष्कर ही नहीं, अति दुष्कर है। यही स्थिति विशिष्ट बोध-ज्ञान एवं विवेक-विकल जीवों की है, इसलिए उन्हें दुर्बोधि जीव कहा है। इस तरह संसार में परिभ्रमणशील जीव आरंभ-समारंभ का आश्रयीभूत होने से संत्रस्त है, व्यथित है, आर्त है। जिसमें मनुष्य विषय-कषाय एवं स्वार्थ के वशीभूत होकर कृषि, कूप, गृहनिर्माण एवं खान आदि के लिए पृथ्वीकाय जीवों को संताप एवं पीड़ा पहुंचाते हैं तथा उनकी हिंसा करते हैं। यों कहना चाहिए कि कर्मजन्य आवरण की विभिन्नता के कारण संसार में अनेक प्रकार के जीव होते हैं-कुछ विषय-कषाय से पीड़ित होते हैं, कुछ शरीर से जीर्ण होते हैं, कुछ प्रशस्त ज्ञान से रहित या विवेक-विकल होते हैं, दुर्बोधि या विशिष्ट बोध से रहित होते हैं, और ये सब तरह के प्राणी अपने भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए अनेक साधनों तथा अनेक तरह से पृथ्वीकायिक जीवों का संहार करते हैं। इसलिए आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू से कहते हैं कि-“हे शिष्य! तू इनकी स्वार्थ-परायणता को देख-समझ।” इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि इन आर्त एवं अज्ञ जीवों की विवेक-विकलता एवं दूसरे प्राणियों को संताप देने की बुरी भावना एवं कार्य-पद्धति को देख-समझ कर उससे बचकर गतिशील हो, अर्थात् उनकी तरह अपने स्वार्थ को साधने के लिए पृथ्वीकाय के जीवों का संहार मत कर। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया कि आर्त एवं दुर्बुद्धि युक्त जीव अपने स्वार्थ के लिए पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। इससे मन में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि पृथ्वीकाय में कितने जीव हैं, अर्थात् एक या अनेक। इसी बात का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं____ मूलम्-संति पाणा पुढोसिया लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ' ॥15॥ छाया-सन्ति प्राणाः पृथक् श्रिता लज्जमानाः पृथक् पश्य अणगारा स्मः 1. 'विहिंसइ' क्रिया का कर्ती ‘एगे' पद बहुवचनांत है, इसलिए क्रिया भी बहुवचनांत होनी चाहिए। परन्तु आर्ष होने के कारण बहुवचन के स्थान में एकवचन का आश्रयण है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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