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________________ 102 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध जीव हैं और उनका शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना बड़ा है। वे सब जीव पृथ्वीकाय के आश्रित हैं। कुछ लोग पृथ्वी को एक देवता के रूप में मानते हैं । परन्तु जैनदर्शन को यह बात मान्य नहीं है। क्योंकि समस्त पृथ्वी में एक नहीं, अनेक जीवों की प्रतीति स्पष्ट होती है, इसलिए उसे एक देवता के रूप में मानना युक्तिसंगत नहीं है। वह एक जीव के आश्रित नहीं, अपितु असंख्यात जीवों का पिण्ड है। इससे पृथ्वीकाय की चेतनता और असंख्य जीव युक्तता दोनों बातें सिद्ध हो जाती हैं। इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से युक्त संयमशील अनगार-मुनिजन पृथ्वीकायिक जीवों के आरंभ-समारंभ से निवृत्त होकर उनकी रक्षा में संलग्न होकर संयम का परिपालन करते हैं। परन्तु इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो अपने आप. को अनगार-साधु, मुनि कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं और उसके साथ-साथ पृथ्वी के आश्रित रहे हुए वनस्पति आदि अन्य जीवों का घात करते हैं। इस तरह सूत्रकार ने कुशल और अकुशल या निर्दोष और सदोष अनुष्ठान का प्रतिपादन किया है। जिन साधकों के जीवन में सद्ज्ञान है और क्रिया में विवेक एवं यतना है, उनकी साधना कुशल है, स्वयं के लिए तथा जगत के समस्त प्राणियों के लिए हितकर है, सुखकर है। परन्तु अविवेकपूर्वक की जाने वाली क्रिया अकुशल अनुष्ठान है; भले ही उससे कर्ता को क्षणिक सुख एवं आनन्द की अनुभूति हो जाए, पर वास्तव में वह सावध अनुष्ठान स्वयं के जीवन के लिए तथा प्राणी जगत् के लिए भयावह है। प्रस्तुत सूत्र के आधार पर मानव-जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है-1-त्याग-प्रधान-निवृत्तिमय जीवन और 2-भोगप्रधान-प्रवृत्तिमय जीवन । साधारणतः प्रत्येक मनुष्य के जीवन में निवृत्ति-प्रवृत्ति दोनों ही कुछ अंशों में पाई जाती हैं। त्याग-प्रधान जीवन में मनुष्य दुष्कर्मों से निवृत्त होता है तो सत्कर्म में प्रवृत्त भी होता है। यों कहना चाहिए कि असंयम से निवृत्त होकर संयम-मार्ग में प्रवृत्ति करता है; और जीवन में भोग-विलास को प्रधानता देने वाला व्यक्ति रात-दिन वासना में निमज्जित 1. एक देवतावस्थिता पृथ्वी। 2. अवधि, मनःपर्यव और केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष और मति एवं श्रुतज्ञान को परोक्ष ज्ञान माना है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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