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अध्यात्मसार : 1
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दुःख का प्रतिघात एक ही सूत्र में है ‘योग की स्थिरता चित्त की उपशांति'; फिर भी जीव समझता नहीं और दुःख प्रतिघात के लिए तरह-तरह के दुःष्कर्म करता है। जैसे रोग को दूर करने की आशा से परिवार का संवर्धन एवं पोषण करना। दुःख को दूर करने के लिए एवं सुख बटोरने के लिए सुख-सुविधा तथा धन का संचय करना। पद, प्रतिष्ठा पाने हेतु क्रोध, मान, ईर्ष्या करना, ऐसे तो अनेको उदाहरण हैं; परन्तु मूल बात है दुःख का प्रतिघात करने से दुःख दूर नहीं होता, दुःख के मूल कारण को जानकर उपाय करना, दुःख के मूल पर ध्यान देना, लेकिन हम फल पर ध्यान देते हैं।
दुःख का मूल है-योग की चंचलता और कषाय। उसका निवारण होते ही दुःख मिट जाता है। उसी के लिए है अरिहंत एवं सद्गुरु की शरण है।