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प्रथम अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
___ द्वितीय उद्देशक प्रथम उद्देशक में सामान्य रूप से आत्मा के अस्तित्व का तथा आत्मा का लोक, कर्म और क्रिया के साथ किस तरह का संबन्ध है और यह आत्मा संसार में क्यों परिभ्रमण करती है, इस बात को समझाया गया है। कर्मबन्धन की कारणभूत क्रिया एवं उससे प्राप्त होने वाले दुःखों का वर्णन करके सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जो साधक परिज्ञातकर्मा होता है, अर्थात् ज्ञ परिज्ञा (ज्ञान) के द्वारा कर्म-बन्ध एवं संसार-परिभ्रमण के कारण को जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा (आचरण) के द्वारा उनका परित्याग करता है, वही मुनि है। क्योंकि मुनि पद को वही पा सकता है, जो संसार-परिभ्रमण एवं कर्म-बन्ध की कारणभूत क्रियाओं से विरक्त हो जाता है और इस विरक्ति के लिए पहले ज्ञान का होना जरूरी है। अतः ज्ञान और आचार से युक्त साधक ही मुनि होता है। जो व्यक्ति क्रियाओं के स्वरूप का बोध भी नहीं करता है
और न उन्हें त्यागने का प्रयत्न करता है, वह मुनि नहीं बन सकता और न कर्म-बन्ध से मुक्त ही हो सकता है। क्रिया में आसक्त व्यक्ति ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध करता रहता है और परिणामस्वरूप पृथ्व्यादि छहकाय रूप योनियों में परिभ्रमण करता फिरता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पृथ्यादि योनियों के स्वरूप को भी समझ लिया जाए, जिससे साधक उनकी हिंसा एवं पाप-कर्म के बन्ध से सहज ही बच सके। इस उद्देश्य से कि जीव-अजीव एवं आरंभ-समारंभ के ज्ञान से शून्य अज्ञ जीव पृथ्व्यादि के जीवों को किस प्रकार सताते हैं, परिताप देते हैं; इस बात को बताते हुए सूत्रकार दूसरे उद्देशक को प्रारंभ करते हुए कहते हैं. मूलम्-अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए। अस्सि लोए पव्वहिए तत्थ-तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेंति ॥14॥
1. 'आतुरा तथा परितान्ति ' ये पद 'लोक' के विशेषण होने से एक वचनांत होने →