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अध्यात्मसार : 1
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अधिक और उपशम की कम रही तो तेरहवें गुणस्थान और यदि उपशम की अधिक है तो ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर पुनः लौटती है।
हेय-उपादेय
राग-द्वेष को रोकना चाहिए, यह कहना हेय का प्रतिपादन है और चित्त को शुभ आलम्बन में लगाना चाहिए, यह बताना उपादेय का प्रतिपादन है। हेय की अपेक्षा उपादेय पर अधिक जोर देना है। फिर भी हेय का वर्णन भी अवश्य करना चाहिए। जो राग-द्वेष को उत्पन्न करे, ऐसा वाचन नहीं करना। ऐसे लोगों के पास भी अधिक नहीं बैठना, जो विकथा करते हैं या राग-द्वेष का प्रोत्साहन करते हैं इत्यादि। लेकिन ये सभी चित्त को शुभ आलम्बन में लगाने रूप, उपादेय में लगाने रूप, सहयोगी हैं। यदि यह संभव नहीं है तो केवल हेय का आचरण करने मात्र से लाभ तो हो सकेगा, लेकिन आभ्यंतर साधना नहीं हो सकती। .
दिशा का ज्ञान कि मैं पूर्व जन्म में क्या था, मैं किस दिशा से आया हूँ और आगे मैं किस दिशा में जाऊँगा? इसका बोध जब क्षयोपशम के आधार पर होता है, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयं के आधार पर होता है, तब वह स्वरूप-रमण और वैराग्य का कारण बनता है। यदि केवल देव या अतिशय ज्ञानी के निमित्त यह ज्ञान हो, तब वह आत्मबोध का कारण बन भी सकता है और नहीं भी बन सकता।
यदि किसी विशेष परिस्थिति या चित्त की विशेष अवस्था में जीव को उसके पूर्व भव का ज्ञान, अतिशय ज्ञानी के द्वारा बताया जाए, तब वह आत्मबोध में प्रत्यक्ष या परोक्ष कारण अवश्य बनता है, जैसे-भगवान महावीर ने मेघ कुमार के पूर्व भव का वर्णन सुनाया तो उसको स्वयं ही जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न होकर आत्मबोध हो गया था। - मूलम्-से जं पुण जाणेजा सह संमइयाए, परवागरणेणं अण्णेसिं अन्तिए वा सोच्चा। तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जाव-अण्णयरीओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि। एवमेगसिं जं णायं भवति अत्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिशाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोऽहं॥5॥