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________________ अध्यात्मसार : 1 आचार्य-प्रवर श्री शिवमुनि जी म. को आचारांग सूत्र का स्वाध्याय करते हुए जिनशासन के आशीर्वाद से जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसे विशेष रूप से इसके साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठक इसका मनोयोग पूर्वक स्वाध्याय करें । मूलसूत्र - तंजहा - पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसिं, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्ढाओं वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि अण्णयरीओ वा दिसाओ, अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि ॥3॥ मूलार्थ - जैसे मैं पूर्व दिशा से आया हूँ, या दक्षिण दिशा से आया हूँ, या पश्चिम एवं उत्तर दिशा से या ऊर्ध्व एवं अधोदिशा से या किसी एक दिशा-विदिशा से इस संसार में प्रविष्ट हुआ हूँ-आया हूँ । संसार का मूल कारण सभी लोग सामान्यतः यही बताते हैं कि संसार का मूल है - कर्म और कर्मों का कारण है राग-द्वेष, अतः राग-द्वेष को दूर करो। लेकिन कहना ऐसे चाहिए - भव भ्रमण का मूल है चित्त-भ्रमण, अतः चित्त को शुभ आलम्बन में एकाग्र करना चाहिए। चारित्र का मूल है गुप्ति । गुप्ति के सधते ही भव - भ्रमण रुक जाता है। आखिर राग-द्वेष भी क्यों होते हैं, क्योंकि चित्त भ्रमित है । जब चित्त किसी शुभ आलम्बन में लीन हो जाए तो राग-द्वेष स्वतः रुक जाते हैं । इस लीनता से मूलतः संवर और निर्जरा होती है। लेकिन साथ में पुण्यबन्ध भी होता है और लीनता बढ़ते-बढ़ते जैसे नमक में पानी की डली विलीन हो जाती है, वैसे ही चित्त आत्मा में विलीन हो जाए, आत्मा के शुद्ध उपयोग में डूब जाए, तभी संवर - निर्जरा की ओर गति होती है और उच्चता की ओर बढ़ते हुए अपूर्व करण की शुरूआत होती है। यह धारा यदि क्षय की
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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